Wednesday, October 19, 2011

मौत की प्लानिंग जरूरी है, इसका कारण जानकर आप भौचक्के रह जाएंगे!

यद्यपि आधुनिक विज्ञान जीवन को किसी भी कीमत पर आगे बढाने की दिशा में काम कर रहा है,लेकिन मेडिकल जर्नल आस्ट्रेलिया में प्रकाशित सम्पादकीय के अनुसार हमें जीवन को आगे बढाने के अलावा अच्छी मृत्यु के लिए एक पूर्व  योजना बनाने की भी आवश्यकता है यह बात सुनने और समझने में अजीब सी लगती हो, पर अगर आप अगर जऱा सोचें तो इस बात में दम है। सघन चिकित्सा यूनिट में काम करने वाले चिकित्सक विलियम सिल्वेस्टर तथा श्वास रोग  चिकित्सक केरेन डेटरिंग का कहना है, कि मृत्यु से पूर्व रोगी की इच्छा एवं केयर प्रोग्राम पर और अधिक काम किये जाने की आवश्यकता  है।
इस जर्नल में छपे सम्पादकीय के अनुसार हम चिकित्सक  रोगी के हित में अंतिम सांस तक अपना फर्ज निभाते हैं, पर कई बार रोगी की इच्छा और चाह  को अंतिम समय में नहीं जान पाते हैं अत: इस बात की आवश्यकता है, कि रोगी से समय- समय पर उसे दी जा रही चिकित्सा के बारे में पूर्ण अवगत कराया जाय तथा उसके  नैतिक,धार्मिक ,आध्यात्मिक  मूल्यों  के प्रति अपनी सोच एवं इच्छा को  अकस्मात् गंभीर  होने की दशा से पूर्व ही जान लिया जाय ढ्ढ ऐसा देखा गया है, कि अधिकांश रोगी मृत्यु से पूर्व अपनी इन इच्छाओं को व्यक्त ही नहीं कर पाते हैं। मेडिकल जर्नल आस्ट्रेलिया में छपे ब्रायन ले एवं मिसेल चेपमेन के  एक अन्य लेख के अनुसार, क्या हममें से अधिकांश अपने  जीवन के अंतिम क्षणों के बारे में पूर्व में ही निर्णय लेने में सक्षम होते हैं?
चिकित्सा  का प्राचीन ग्रन्थ आयुर्वेद भी सुखायु की  कल्पना करता है,जिसमें जीवन की अवधि को सुखपूर्वक बिताकर अच्छी मृत्यु प्राप्त करने को शुभ माना गया है I आयुर्वेद में पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म की ओर भी इंगित किया गया है। अच्छी मृत्यु  को हमारे शास्त्रों में आवश्यक बताया गया है I  चिकित्सकों के लिए यह बात महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है ,क्योंकि वे अक्सर मृत्यु को अपने सामने देखते हैं। अत: मृत्यु एक अटूट सत्य है ,और इसे भी अच्छी तरह अपनी इच्छाओं को अंतिम समय में व्यक्त कर ही दुनिया से विदा लेने की दिशा में भी थोड़ा बहुत नियोजन किया जाना चाहिए। इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-death-death-knowing-you-will-be-shocked-2509349.html

डांस का मैजिक: कर दें इन दो घातक बीमारियों की छुट्टी


हमारी संस्कृति में नृत्य का अपना महत्व है नाचने का  महत्व नाच न जाने आंगन टेढा मुहावरे से भी झलकता है ,अब यही बात अमेरीकी वैज्ञानिकों ने साबित कर दी है ,आप शुरू करें नाचना और पाएं मोटापे एवं टायप-2 डायबीटीज  से छुट्टी। वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष लगातार बच्चों को एक महीने तक, एक घंटे का साप्ताहिक हिप-होप नृत्य, एक जिम की वूडन फर्श पर कराकर पाया है । पेनीसाल्वेनिया स्कूल ऑफ नर्सिंग के डॉ. पेरी लीपमेन का कहना है, कि़ इस शोध से उन बच्चों को अलग कर दिया गया, जिनकी ह्रदय गति असामान्य रूप से बढ़ गयी थी।डॉ. लीपमेन का कहना है, कि़ यह शोध अच्छे  स्वास्थ्य के लिए पूरी दुनिया में नृत्य को बढ़ावा देगा।वैसे भी भारत में नृत्यों  की परम्परा संस्कृति से जुडी हुई है, कत्थक,कुचीपुडी ,ओडीसी ,भरतनाट्यम,भांगड़ा  आदि नृत्यों से होने वाली शारीरिक सक्रियता के कारण फायदे को देखकर ही इसे परम्परा के रूप में निभाया जा रहा है। शारीरिक सक्रियता के महत्व को योग के आसनों में भी देखा जा सकता है ,जो बात आज अमेरिकी शोधवेत्ता कह रहे हैं वो हमने सदियों से संस्कार के रूप में  अपनाई है। शायद हमारे ऋषियों के ज्ञान चक्षुओं क़ी दिव्यता का कमाल ही रहा होगा कि हम त्योहारों से लेकर शादियों में डांस करते रहे हैं, तो हो  जाएं। शुरू आज और अभी से ही नृत्य के अभ्यास में, इससे मिलेगा आपकी कला को निखार और उत्तम स्वास्थ्य रहेगा बरकरार।
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Sunday, October 16, 2011

सांप नवविवाहिता पति को डसने ही जा रहा था मगर तभी ....

अब दिवाली आने ही वाली है और इसे पूर्व धनतेरस के लिए बाजारों में खरीदारी करने क़ी भीड़ उमडऩा एक सामान्य बात है। वैसे भी धनतेरस पांच दिन चलनेवाले दीपावली के त्योहार का पहला दिन होता है,जिसे धनत्रयोदशी या धन्वन्तरीत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है, जो कृष्णपक्ष क़ी त्रयोदशी को आश्विन महीने में पड़ता है। धनतेरस में आनेवाला शब्द 'धन समृद्धि का प्रतीक है और इस दिन देवी लक्ष्मी के वाहन उल्लू को धन, धान्य  एवं समृद्धि के लिए पूजने का विधान है। हिन्दू धर्मावलम्बी इस दिन को सोने एवं चांदी क़ी खरीददारी के लिए उपयुक्त मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि़ क्रय किया नया धन शुभ फल देने वाला होता है। इस पर्व को मनाने के पीछे क़ी कथा आपको शायद ही मालूम हो तो हम बताते हैं इसके पीछे क़ी घटना। राजा हिम के सोलह वर्ष के बालक क़ी कुण्डली में विवाह के चौथे दिन सांप के काटने से मृत्यु होने का अंदेशा था, इसलिए विवाह के चौथे दिन उसकी नवविवाहित पत्नी ने मृत्यु के भय से उसे सोने नहीं दिया।
उसने सोने एवं चांदी के गहनों से सजाकर उस कमरे को रोशनियों से सराबोर कर दिया, अपने पति को जगाने के लिए वह कहानियां सुनाने एवं गीत गाने लगी। कहा जाता है कि़ सर्प के रूप में जब यम उस कमरे में दाखिल हुए तो उनकी आंखें कमरे क़ी जगमागाती रोशनियों को नहीं झेल पायी और वे अंधे हो गए तथा उस कमरे में प्रवेश नहीं कर पाए। इसके बाद वे पूरी रात उन सोने चांदी के सिक्कों एवं गहनों के ढेर के ऊपर बैठ रहे और उसकी पत्नी द्वारा गाया जा रहा मधुर संगीत सुनते रहे, अगली सुबह यम चुपचाप कमरे से बाहर निकल गए। इस प्रकार नवविवाहिता पत्नी ने अपने पति के प्राणों को यम के हाथों ले जाए जाने से रोकने में सफलता पा ली थी। कहा जाता है, कि उसी दिन से इस दिन को यमदीपन क़ी संज्ञा दी गयी और पूरी रात जगमगाते प्रकाश से यम के रूप में आनेवाली मृत्यु को दूर रखने क़ी परम्परा विकसित हुई।
एक दूसरी कहानी भी इस दिन के महत्व को बढ़ा देती है, कहा जाता है कि़ देवताओं एवं असुरों के बीच अमृत को लेकर जब युद्ध हो रहा था और इनके द्वारा जब समुद्र का मंथन किया गया तो भगवान् विष्णु के अवतार धन्वन्तरी अमृत कलश लेकर प्रकट हुए जिन्होंने देवताओं को अमृत का पान करा अमर बनाया, अत: चिकित्सक रोगमुक्त करने एवं औषधियों में अमृत तुल्य गुणों की प्राप्ति  हेतु भगवान् के रूप में पूजते हैं ताकि उनकी चिकित्सा सफल हो और प्राणियों के दुखों का नाश हो।इसी आर्टिकल को पदाहने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :http://religion.bhaskar.com/article/yoga-husband-was-going-to-bite-the-snake-but-when-2494253.html

दीपावली पर खाने-खिलाने में इन बातों को ना भूले वरना....


दीपावली का त्योहार आने वाला है ,इस त्योहार में प्रकाश की जगमगाहट के साथ साथ मीठी -मीठी मिठाइयों एवं पकवानों को खाने एवं खिलाने का चलन भी है। यह ठीक है, कि मिठास हमारे जीवन क़ी आवश्यकता है ,यह वाणी सहित हमारे व्यवहार में हो तो क्या कहने। लेकिन यही मिठास यदि रक्त की शर्करा में बढ़ोतरी के रूप में हो, तो डायबिटीज को निमंत्रण देती है  और यह तो आप जानते ही होंगे कि़ डायाबिटीज  एक ऐसा  डिसऑर्डर है ,जो कई बीमारियों का कारण बन जाता है।
कहते हैं,कि़ "अति सर्वत्र वज्र्यते" यह बात खाने- खिलाने में भी शत-प्रतिशत लागू होती है। जैसे कविताओं में मधुर रस क़ी महत्वपूर्ण भूमिका है, वैसे ही आयुर्वेद में मधुर रस को बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है,इसे कफ दोष को बढाने वाला माना जाता है और इसके विपरीत गुणों वाला रस कटु रस माना गया है। वैसे भी मधुरता के उलट कटुता होती है। लेकिन त्योहारों में कटुता हमारे संस्कारों के विपरीत है, संभवत: इसलिए ही तीज-त्योहारों में आपसी  मधुरता और भाईचारा बढाने के लिए मीठी-मीठी मिठाइयों एवं पकवानों को खाने एवं खिलाने का चलन है ,अत: हमें सयंमित होकर ही इनका सेवन करना चाहिए। ऐसी कुछ स्थितियां हैं जहां इनका सेवन न हो तो बेहतर है:-
-टाइप 1 या टाइप 2 डायाबिटीज के रोगी अतिरिक्त मीठे के सेवन से बचें तथा आहार में कटु-तिक्त एवं कसाय रस का सेवन अधिक करें। अगर स्वाद के कारण  मीठा खाने की इच्छा हो तो शुगर फ्री का सेवन करें बाजारों में आजकल स्टीविया पादप से बने शुगर फ्री उपलब्ध हैं, अगर आप चाय पीने के शौकीन हैं, तो यथा संभव शुगर फ्री डालकर ग्रीन-टी का सेवन करें।
-त्योहारों में तले हुए पकवान जैसे मालपुवा आदि में अत्यधिक गरिस्टता हमारी पाचन क्षमता को प्रभावित कर सकती है ,अत: इनका सेवन कम से कम ही करें तो बेहतर होगा ,खासकर हृदय एवं उच्च रक्तचाप के रोगी इनके सेवन से बचें।
-मिठाइयों में पडऩे वाले मावे की शुद्धता की जांच-परख कर लें, कहीं यह आपके लिए नुकसानदायक न हो। अत: मिठास हमारे त्योहारों ही नहीं बल्कि सामान्य  जीवन की एक दैनिक आवश्यकता है ,बस ध्यान रहे की यह शुद्ध एवं संयमित हो।
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त्योहारों का पर्यावरण रक्षा सहित औषधीय महत्व


कहते हैं,अच्छा खाना,अच्छा पहनना, अच्छी नींद और खुश रहने के बहाने ढूढना  जीवन को खुशनुमा और सफल बनाने का एक जरिया है I हमारी परम्परा में त्योहारों को मनाने के पीछे भी यही सोच काम करती है I त्योहारों में अक्सर रिश्तेदारों,दोस्तों से मुलाक़ात हो ही जाती है,कभी-कभी तो पुराने गिले-शिकवे दूर कर रिश्तों क़ी कडवाहट मिठास में बदल जाती है I दीपावली के त्योहार को मनाने के पीछे भी जीवन को अन्धकार से मुक्त कर ज्योति स्वरुप प्रकाश क़ी तरह धन -धान्य एवं समृद्धि से चमकने क़ी ईश्वर  से कामना करना है I दीपावली से पूर्व घरों क़ी साफ़-सफाई के पीछे भी स्वच्क्षता का सन्देश है, जिससे पूरा घर विसंक्रमित हो जाता है I इसी प्रकार पूजा में प्रयुक्त होनेवाली हवन सामग्री के घटक जीवाणुओं एवं विषाणुओं  को दूर करने में मददगार होते हैं I पूजा में चढ़ाया जानेवाला नारियल,आम के पत्ते,बिल्व  के पत्ते  ,तुलसी के पत्ते ,पंचगव्य ,पंचामृत हर एक का अपना औषधीय महत्व आयुर्वेद क़ी पुस्तकों में विस्तार से बताया गया है I इसके पीछे का उद्देश्य लोगों क़ी आस्था को प्रकृति से जोड़कर पर्यावरण रक्षा का सन्देश देना है I हमारे देश में हर त्योहार को बड़े ही धूम धाम से मनाये  जाने क़ी परम्परा है, इन्ही परम्पराओं में हमने कुछ ऐसे साधन भी विकसित कर लिए हैं, जो हमारे लिए शारीरिक ,मानसिक एवं आर्थिक नुकसान दे सकते हैं, शराब एवं जुआ इनमें से एक है ,अतः आवश्यकता है क़ि त्योहारों में शालीनता  एवं मर्यादा का पालन कर पर्यावरण  रक्षा का भाव अपने दिल में रखते हुए आतिशबाजी का प्रयोग करना स्वास्थ्य रक्षा के  लिए उपयोगी होगा I हमें अपनी खुशी के साथ साथ औरों क़ी खुशियों का भी ख़याल रखना चाहिए I

भारत का सुपर बग


भारत में मिलने वाले "सुपर बग" जिससे पश्चिमी देश भयाक्रांत हैं, दरअसल जीवाणुओं में मिलनेवाला NDM-1 नामक एक "सुपर जीन" है ,जिसे ' न्यू देल्ही-मेटेलो -बीटा-लेक्टेमेज 'नाम दिया गया हैIआज इस सुपर बग से पूरा पश्चिमी जगत डरा है Iइससे भारत के मेडिकल टूरिज्म उद्योगके प्रभावित होने का पूरा ख़तरा हैI भारत में प्रतिवर्ष एक लाख से अधिक लोग विदेशों से स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेते हैं, तथा 
२०१२ तक इस उद्योग के २ बिलियन डालर तक पहुचने की सभावना है I अतः इसके पीछे पश्चिमी देशों की  एक सोची समझी साजिश को नकारा नहीं जा सकता है,क्योंकि इस "सुपर बग" के सुपर जीन का नाम भारत की राजधानी से  जोड़ कर देने की पीछे के मकसद को समझना भी आवश्यक होगा Iयदि इसे सबसे पहले भारत में देखा गया इसलिए इसका नाम 'न्यू देल्ही-मेटेलो -बीटा-लेक्टेमेज'  दिया गया ,तो फिर HIV के विषाणु को सबसे पहले अमेरिका में देखा गया तो इसका नाम अमेरिकी शहर के नाम पर क्यों नहीं रखा गया ?
यह बात ठीक है की इन दवाओं का दुरुपयोग भी ऐसी स्थिति के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है,लेकिन इस कुप्रचार में केवल भारत को शामिल करना पश्चिमी देशों की   नियत में संदेह पैदा करता हैI

महिलाएं कैसे मुकाबला करें उन असहज दिनों का?

स्त्री को हमारे समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ,हो भी क्यों न ? कहीं मां,बहिन,बेटी ,बहु और पत्नी के रूप में उसकी सेवाएं हमारे जीवन के निर्माण से लेकर उन्नति के शिखर तक पहुंचाने में प्राप्त होती है। आयुर्वेद में भी स्त्री के महत्व क़ी महिमा बतायी गयी है, आप जानते हैं कि आज के युग में स्त्री पुरुषों के बराबरी पर खडी  है ,और कई मामलों में तो एक कदम आगे भी,जबकि शारीरिक रूप से पुरुषों एवं स्त्रियों में कुछ असमानताएं भी हैं ,खासकर जननागों क़ी असमानता।
ये असमानता महिलाओं क़ी शारीरिक,मानसिक एवं सामाजिक पहलूओं को थोड़ा बहुत तो प्रभावित तो करती ही हैं। इन बातों का एहसास उनके करीब जाकर ही होता है ,इसका कारण महिलाओं में नियमित होनेवाला  'मासिक- चक्र ' या माहवारी  है ,जो उन्हें हर महीने गर्भधारण के लिए योग्य बनाता है,आयुर्वेद में स्त्री की इस अवस्था को रज:स्वला अवस्था कहते हैं , इसके  प्रारम्भ होने क़ी उम्र 12 से 13 वर्ष होती है, जिसे 'मीनार्क कहा जाता है ,औसतन यह आठ से सोलह वर्ष के बीच हो सकता है,ठीक इसी प्रकार महिलाओं में इस चक्र के बंद होने क़ी आयु 45 से 55 वर्ष है, जिसे 'मेनोपोज़ ' कहा जाता है , अर्थात इस उम्र के बाद गर्भाधान क़ी प्रक्रिया नहीं हो सकती है ढ्ढ कुछ महिलाओं में यह 45 वर्ष से पूर्व भी हो सकती है ,इसे प्री- मेच्युर मेनोपोज़कहा जाता है।
 मासिक चक्र क़ी अवधि महिलाओं में अलग- अलग होती है, कुछ में यह छोटी अवधि का होता है, तो कुछ में लम्बी अवधि का,वैसे औसतन यह  21 से 35 दिनों के बीच होता है, इसके प्रारम्भ होने के पूर्व कुछ लक्षण आते हैं,जिन्हें 'प्री-मेंसटूरल लक्षण ' के नाम से जाना जाता है, इनमे सिरदर्द,कमरदर्द,पूरे शरीर में सामान्य पीड़ा खासकर पेट के निचले  हिस्से में तथा जोड़ों में दर्द ,स्तनों में असहजता का एहसास,पेट फूलना,कभी -कभी अँगुलियों,टखनों एवं पिंडलियों में पीड़ा क़ी अनुभूति होती है ढ्ढ   इसी प्रकार मूड में परिवर्तन,तनाव,चिडचिडापन,अवसाद ,किसी  काम में मन न लगना,भूलने क़ी प्रवृति,थकान आदि लक्षण देखे जाते हैं।  डॉ.केथेरिन डाल्टन ने महिलाओं के  'मासिक  -चक्र ' पर  एक लंबा शोध किया है तथा यह निष्कर्ष दिया है ,कि़ महिलाओं में आत्महत्या,क्राइम,शराब सेवन,दुर्घटना आदि मासिक- चक्र के प्रारम्भ होने के एक दिन पूर्व (पारामेंस्टूरम) अवधि में देखे जाते हैं, कुछ देशों में तो महिलाओं को इस अवधि में  टेम्पररी इन्सेनीटी नाम से कानूनी मान्यता मिली हुई है। यह बात सत्य है कि़ कुछ महिलाओं में ही ये लक्षण कठिनाई पैदा करते हैं तथा अधिकांश महिलाएं इसे हर माह उत्पन्न होने वाला एक सामान्य लक्षण मानकर अपने आप को संयत कर लेती हैं,लेकिन कुल मिलाकर इसका मानसिक प्रभाव तो पड़ता ही है।
ये तो रही इसके शारीरिक और मानसिक पहलूओं क़ी बात अब जानें कैसे इससे होनेवाली असहजता से जूझें :-
-यह कोई रोग की अवस्था नहीं है,अपितु महिलाओं के शरीर क़ी स्वाभाविक अवस्था है,अत: जबतक लक्षण कठिनाई उत्पन्न न करें तबतक दवाओं के अनावश्यक सेवन से बचें।
-अधिकांश महिलाओं को इसकी पूर्ण जानकारी ही नहीं होती है ,तथा शारीरिक स्थितियों के प्रति सहनशीलता का अभाव भी स्थिति को प्रभावित करता है,अर्थात अगर यह समझ में आ जाय कि़ सिरदर्द,कमरदर्द,चिडचिडापन आदि लक्षण 'मासिक -चक्र ' के कारण उत्पन्न हो रहे हैं तथा यह किसी अन्य बीमारी के कारण नहीं तो समस्या काफी हद तक कम हो जाती है।
-अगर महिलाएं अपनी 'मेंसटूरल-प्रोफाइल ' क़ी ठीक- ठीक  जानकारी रखें ,तो सकारात्मक सोच से भी अपने व्यवहार को संयमित किया जा सकता है।
-यदि शरीर में पानी के रूकने के कारण सूजन आदि जैसे लक्षण आ रहे हों तो , 'पारामेंस्टूरम अवधिÓ में नमक और पानी की मात्रा थोड़ा कम कर दें ,इसके साथ ही ऐसे फलों का सेवन करें जो प्राकृतिक रूप से मूत्रल ( डाईयूरेटिक) होते हैं  जैसे :खीरा,ककडी,लौकी,तरबूज आदि ढ्ढ
-भोजन में अतिरिक्त नमक क़ी मात्रा को कम करते हुए पोटेशियम बहुल फल जैसे: केला,संतरे एवं टमाटर का सेवन करें ढ्ढ
-यह बात सत्य है कि़ हम क्या  आहार लेते हैं, इसका सीधा सम्बन्ध हमारे शारीरिक लक्षणों पर पड़ता है,अत: सन्तुलित आहार एवं प्रचुर मात्रा में फल सब्जियों का प्रयोग कब्ज जैसे लक्षणों को दूर करता है।
-आयुर्वेद में भी स्त्री को रज:स्वला की अवस्था में विशेष सावधानी एवं सफाई तथा सदाचार का पालन करने तथा पुरुषों को इस अवस्था में यौन सम्बन्ध स्थापित  न करने का निर्देश दिया गया है।
-कुछ आयुर्वेदिक दवाएं जैसे :गोक्षुरचूर्ण,पुष्यानुगचूर्ण,दशमूलारिष्ट,पुष्करमूलचूर्ण ,लोध्रचूर्ण,नवायस लौह,धात्रीलौह,मंडूरभस्म,सुपारीपाक   आदि का चिकित्सक के निर्देशन  में प्रयोग इसके सामान्य लक्षणों को तो कम करता ही  है,साथ ही मानसिक एवं शारीरिक रूप से संबल बनाता है।
-योग के आसनों एवं प्राणायाम का नियमित अभ्यास तनाव को दूर कर मानसिक मजबूती प्रदान करता है।
अत: हर स्त्री को महीने के उन दिनों में सामान्य एवं संयत भोजन ,सदवृत्त पालन के साथ- साथ सफाई का विशेष खय़ाल रखते हुए ,सामान्य लक्षणों के प्रति सामान्य व्यवहार एवं असामान्य लक्षणों के होने पर प्राकृतिक औषधियों से उपचार लेना चाहिए।इसी आर्टिकल को पढने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-how-do-women-cope-with-the-uncomfortable-days-2388150.html

तो इसलिए कहते हैं हल्दी को लाख दुखों की एक दवा

हल्दी का  प्रयोग प्राचीन काल से ही हमारे दादी एवं नानी द्वारा दूध में मिलाकर देकर होता था , जिससे घाव जल्दी भर जाता था , यहाँ तक चोट एवं मोच में भी  हल्दी के  लेप का प्रयोग आपको शायद याद ही होगा। ऐसे ही हल्दी का प्रयोग आज भी आयुर्वेदिक चिकित्सक क्षार-सूत्र जैसी विधाओं में कर रहे हैं। कहीं कट या तो भी हल्दी का लेप अत्यंत लाभकारी है, ऐसी है हल्दी लाख दुखों की एक दवा है।  
हल्दी जिसे हरिद्रा,कांचनी,पीता आदि नामों से जाना जाता है ,आयुर्वेद का विश्व को अमृत तुल्य औषधि के रूप में वरदान है। आयुर्वेद की  पुस्तकों में इसे सबसे अच्छा एंटीसेप्टिक तो माना गया ही  है, साथ ही यह एक ऐसी औषधि है ,जो त्वचा रोगों से लेकर एलर्जी जैसे इम्यून सिस्टम के रोगों को भी ठीक करती है। यूं ही नहीं इसे हमारी रसोई में एक सम्मानित स्थान मिला है। क्या मजाल है ,जो हल्दी के बिना सब्जी या दाल बन जाय। केवल रसोई ही क्यों शादी-व्याह में उबटन में भी इसका प्रयोग सर्वविदित है।
हाल में ही यू.सी.एल.ए .जोंसन कैंसर केंद्र में हुए एक शोध के अनुसार भारतीय मसालों में प्रयुक्त होने वाली हल्दी में  पाया जानेवाला 'कर्कुमिन' मनुष्य क़ी लार ग्रंथि में पाए जानेवाले कैंसर की कोशिकाओं की वृद्धी का सिग्नल देनेवाले रास्ते को ही बंद कर देता है,जिससे नाक और गले में विकसित होने वाली  कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि रुक जाती है।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए  लिंक पर क्लिक करें 

http://religion.bhaskar.com/article/yoga-one-of-the-millions-suffering-2462987.html
                                                                                                                                                                           

कई बीमारियों की एक दवा है यह, आजमा कर तो देखो!


हमारा शरीर एक मशीन क़ी तरह जन्म से लेकर मृत्यु तक कार्य करता है। हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली मशीनरीयों की तो हम समय- समय पर सर्विसिंग करवाते रहते हैं, साथ ही उसका बीमा लेने से भी नहीं चूकते। लेकिन जब शरीर क़ी बात आती है तो हमने कभी उसकी सर्विसिंग के बारे में शायद ही सोचा हो। बात छोटी लगती हो, पर है बड़ी गंभीर। जिस प्रकार मशीनी यन्त्र को सही ढंग से लम्बी अवधि तक चलाने के लिए तेल,पानी एवं ग्रीसिंग कि आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर रूपी कलपुर्जों को बगैर घिसे लम्बी अवधि तक चलाने के लिए चिकनाई क़ी आवश्यकता होती है। 
चिकनाई को लेकर हमारे मन में कई शंकाएं होती है, जैसे कहीं कोलेस्ट्रोल न बढ़ जाय। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए क़ी बिना चिकनाई के हमारे जोड़ों क़ी गति कैसे होगी? वात नाडिय़ों को पोषण कैसे मिलेगा? क्या गठिया जैसे रोग हमें अपना शिकार नहीं बना लेंगे? इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, हमें अपने शरीर का खय़ाल रखते हुए सम्यक मात्रा में घी एवं तेलों का प्रयोग करना चाहिए।शरीर क़ी मालिश हेतु पंचकर्म चिकित्सक अभ्यंग का प्रयोग पूर्वकर्म के रूप में कराते हैं ,जो अपने आप में रोगों की चिकित्सा है। तेलों में तिल के तेल को सबसे अच्छा माना गया है, यह शरीर में शीघ्रता से फैलता है। तेलों का सबसे अच्छा गुण, इनका स्निग्ध होते हुए भी शरीर में कफ  दोष को नहीं बढ़ाना है ,तेल मे एक  विशेष  गुण होता है - यह दुबले व्यक्ति का दुबलापन दूर करता है ,साथ ही मोटे का मोटापा भी है न खासबात।तेल अपने गुणों से संकुचित स्रोतों को खोलता है, रूखी त्वचा तेल से कोमल बन जाती है। तेल का सबसे अच्छा गुण इसका अन्य दवाओं से संस्कारित करने पर उनके गुणों को भी अपने अन्दर लेकर रोगों में लाभ पहुंचाना है। रोजाना बालों क़ी जड़ों में तेल क़ी मालिश करने पर सिरदर्द,गंजापन एवं समय से पूर्व बाल सफ़ेद होने जैसे लक्षणों छुटकारा पाया जा सकता है। तेल पका हो या कच्चा,जितना पुराना हो उतना ही गुणकारी होता है।बाजार में उपलब्ध कुछ ऐसे तेल जिनका उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सक रोगों क़ी चिकित्सा में करते हैं निम्न हैं: तिल का तेल ,जैतून का तेल ,अलसी का तेल ,भृंगराज तेल ,बादाम तेल,चन्दन का तेल,लौंग का तेल,एरंड का तेल,सरसों का तेल आदि। अत: हम यह कह सकते हैं तेल का प्रयोग अनेक रोगों में एक रामबाण चिकित्सा है।इसी आर्टिकल को पढ़ने  के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

प्रकृति का कमालः दिल में भी लगी होती है एक बैटरी....

हमारा शरीर रूपी यन्त्र एक मशीन है,तो इसकी धमनियां एवं शिरायें इसकी लाइफलाइन हैं। इस लाइफलाइन में जीवन का प्रवाह निर्बाध गति से यदि कोई करता है, तो वो है हृदय। हृदय एक पम्प क़ी भांति  गर्भ के 20वें सप्ताह से 120-160 प्रति मिनट क़ी दर से धडकना प्रारम्भ कर देता है और जीवन पर्यंत 72 प्रति मिनट क़ी दर से बिना थके धड़कता है।
क्या हमने कभी सोचा है, क़ि क्या  ऐसी कौन सी ईश्वर प्रदत बैटरी है, जो इसे जन्म से मृत्युपर्यंत बिना चार्ज किये धड़कने को ऊर्जा पैदा करती है। जी हाँ, हमारे हृदय में भी "साइनोओरिकुलरनोड" नामक बैटरी होती है, जो इसे जीवन पर्यंत धड़कने क़ी ऊर्जा देती है। अगर किन्ही कारणों से यह बैटरी बंद हो जाय तो,फिर बाहर से "पेसमेकर" के रूप में बैटरी  लगानी  पड़ती है।
इसी प्रकार यदि खून क़ी नलियों में रुकावट आ जाय,या नलियाँ संकरी हो जाँय तो जोखिम और बढ़ जाता है। ऐसी ही स्थिति में दिल के दौरों क़ी संभावना और अधिक बढ़ जाती है। स्त्रियों क़ी अपेक्षा पुरुषों में दिल के दौरों के अधिक संभावना पायी जाती है, अतः पुरुषों को सावधानी क़ी विशेष आवश्यकता होती है, इसका कारण स्त्रियों में एच.डी.एल.क़ी मात्रा का 25% अधिक होना है।
एच.डी.एल. ह्रदय रोगों से बचाव करता है, यदि परिवार के बुजर्गों को हृदयरोग रहा हो तो,वंशानुगत प्रभाव से भी इसके होने क़ी संभावना रहती है। रक्त में सामान्य से अधिक लिपिड क़ी मात्रा भी हृदय रोगों क़ी संभावना को बढ़ा देती है। धूम्रपान करने वाले व्यक्ति में भी हृदय रोग क़ी संभावना अधिक होती है।
उच्चरक्तचाप भी हृदय रोग क़ी संभावना को बढ़ा देता है। रक्त में शर्करा क़ी अधिक मात्रा भी हृदयरोगों क़ी संभावना को बढ़ा देती है। मोटापा भी हृदयरोगों का कारण हो सकता है। रक्त में लाइपोप्रोटीन क़ी अधिक मात्रा भी हृदयरोग के उत्पत्ति का कारण हो सकती है। हृदय रोगों से बचाव हेतु आयुर्वेद में कुछ औषधियों का वर्णन है, जो उच्चरक्तचाप सहित हृदय क़ी मांशपेशियों को मजबूत करता है।
इन औषधियों में अर्जुन क़ी  क्षाल,जहरमोहरा ,मोतीपिष्टी , हृदयार्नव  रस  आदि प्रमुख हैं। हाँ,आसनों एवं प्राणायाम का नियमित अभ्यास, तनावमुक्त सक्रिय दिनचर्या, नियंत्रित रक्तचाप-रक्त शर्करा एवं संयमित आहार हृदय रोगों क़ी संभावना को कम कर देता है।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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आयुर्वेद से जानिए कैसी है आपकी आदतें...


अक्सर हमारे मन में ये सवाल उठता है कि़ फलाँ मुझे सूट नहीं करता। ये प्रश्न खाने पीने से लेकर हमारे व्यवहार, पहनावे, दोस्त, पसंद नापसंद, स्वास्थ्य, आत्मविश्वास एवं रोगों की संभावना को जानने की जिज्ञासा लिए रहता है। आयुर्वेद में इन सभी जिज्ञासाओं का समाधान उपलब्ध है। आयुर्वेद में हर व्यक्ति की एक विशेष प्रकृति बतायी गयी है।
इसे दोषों के अनुसार अनुभवी वैद्य निर्धारित कर रोगी की पूर्ण जानकारी की अनुभूति कर लेते हैं। कुछ लोग वातप्रकृति के, कुछ पैत्तिक एवं कुछ कफजप्रकृति के होते हैं। इनमे समरूप से वात -पित्त -कफ वाले स्वस्थ एवं केवल एकल दोष प्रकृति वाले सदा रोगी होते हैं ढ्ढ प्रकृति के अनुसार ही खाने पीने की सलाह वैद्य देते हैं। जैसे 
- वातिकप्रकृति वाले व्यक्ति को ठंडा,हल्का,रूक्ष खान-पान, वात को बढ़ा कर वातरोगों को जैसे जोड़ों का दर्द, कमर दर्द, सीयाटिका, सिरदर्द आदि उत्पन्न कर सकते हैं।
- इसी प्रकार पैत्तिकप्रकृति वाले व्यक्तियों में गर्म, मिर्च-मसाले युक्त, तीखे, चटपटे भोजन लेने से हाइपरएसिडिटी, पीलिया, बुखार आदि रोग शीघ्र उत्पन्न हो सकते हैं।
- ठीक इसी प्रकार कफजप्रकृति के व्यक्तियों में मीठा, भारी एवं अत्यधिक चिकनाईयुक्त खान- पान, कफदोष को बढ़ाकर प्रमेह, मोटापा, हृदय से सम्बंधित विकृति, दमा आदि रोगों की संभावना उत्पन्न कर सकता है। अत: वैद्य प्रकृति के विरुद्ध ही खाने-पीने की सलाह देते हैं। इसी प्रकार प्रकृति के आधार पर हम व्यक्ति की पसंद नापसंद को जान सकते हैं ढ्ढ वातिकप्रकृति वाला वातप्रधान, पैत्तिकप्रकृति वाला पित्तप्रधान एवं कफजप्रकृति वाले को कफदोषप्रधान खान-पान पसंद आता है।
ऐसे ही वातिकप्रकृति का व्यक्ति अस्थिर,चंचल, फुर्तीला,लंबा ,रुखीत्वचा,प्राय: श्यामवर्ण का हो सकता है, पैत्तिकप्रकृति वाला व्यक्ति बातों- बातों में गुस्सा करने वाला जैसे गुणों से युक्त होता है, कफज प्रकृति वाला व्यक्ति प्राय: आरामतलवी,मिष्ठानप्रेमी, प्राय: स्थूल, शांत एवं सोच -समझ कर काम करने वाला होता है। वैसे एकल प्रकृति वाले लोग कम ही होते हैं, अधिकांश द्वंदज यानी दो दोषप्रधान प्रकृति के होते हैं।
अत: आयुर्वेदिक चिकित्सक प्रकृति का आकलन कर खाने- पीने,व्यवहार करने , दवा लेने की सलाह देते हैं ढ्ढ तो यदि आप भी जानना चाहते हैं ,अपनी प्रकृति से सम्बंधित गूढ़ रहस्यों को तो आज ही आयुर्वेद को अपनाएं और अपना प्रकृति निर्धारण कर स्वस्थ एवं सुखी जीवन का आनंद लें। इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

इन तेरह बातों का ध्यान न रखा तो बीमारी तय समझिए

आचार्यों ने जीवन जीने की कलाओं के सन्दर्भ में खाने -पीने,व्यवहार करने से लेकर करने एवं न करने आदि जैसे अनेक छोटी -छोटी बातों को बताया है। ये बातें भले छोटी और निरर्थक लगती हो, पर इनकी गंभीरता पर लेश मात्र भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए। ऐसी ही कुछ बातें आयुर्वेद में वेग-धारण के नाम से बताये गयी है। कहा गया है, कि इन 13 वेगों में से किसी एक को भी आपने रोका तो बीमारी तो तय समझिए।
वात का वेग - इसमें नीचे से निकलने वाली अपान वायु एवं ऊपर से निकलने वाली उध्र्ववात को नहीं रोकना चाहिए।
विट का वेग - आये हुए मल त्याग करने के वेग को रोकना भी बीमारियोँ का कारण बन सकता है।
मूत्र का वेग - आये हुए पेशाब के वेग को कतई नहीं रोकना चाहिए।
क्षींक का वेग -क्षींक के स्वाभाविक रिफ्लेक्स को रोकना भी खतरनाक हो सकता है।
प्यास का वेग - स्वाभाविक रूप से पानी पीने क़ी इच्छा हो तो इसे कभी भी नहीं रोकना चाहिए।
क्षुधा का वेग - भूख यदि स्वाभाविक रूप से लग रही हो तो इसे रोकने का प्रयास न करें।
निद्रा का वेग - स्वाभाविक रूप से नींद आना स्वस्थ होने का परिचायक है इसे भी रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
कास का वेग - यदि सामान्य रूप से खांसी आ रही हो तो यह एक रिफ्लेक्स है जिसे आने देना चाहिए, हां ये बेहतर होगा कि़ खांसते वक्त मुंह पर रूमाल रख लिया जाय
श्वास  का वेग -अत्यधिक कार्य करने से यदि सामान्य से अधिक सांस आ रही हो तो इससे घबराना नहीं चाहिए और नहीं रोकना चाहिए।
जम्हाई  का वेग - यदि आपको जम्हाई आ रही हो तो आने दें , इसे भी नहीं रोकें ।
अश्रु का वेग - आंखों क़ी सफाई के लिए सामान्य रूप से कभी- कभी आंसू अनायास ही निकल  पड़ते हैं, इन्हें भी नहीं रोकने का प्रयास न करेंट।
छर्दी का वेग - सामान्य रूप  से बिना किसी रोग के भी कभी- कभी उल्टी आ सकती है ,यह पेट की सफाई के लिए होती है ,यदि अधिक न हो तो इसे आने देना चाहिए।
शुक्र का वेग - सामान्य रूप से यौन संपर्क की चरमोत्कर्ष पर आने वाले शुक्र के वेग को भी नहीं रोकना चाहिए।
है न कमाल की बातें ,पर बिल्कुल सत्य। अगर आप इन स्वाभाविक वेगों को रोकेंगे तो विभिन्न रोगों के शिकार बन जाएंगे।इस आर्टिकल को पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक क
रें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-taken-care-of-thirteen-probably-fix-the-disease-2395488.html

जब भी दही खाएं ये बातें जरूर याद रखें क्योंकि...

हमारी धर्म एवं संस्कृति में खाने पीने के पदार्थों का बड़ा महत्व है,पूजा हो या त्यौहार या कहीं जाना हो यात्रा पर, या करनी हो शुभ काम की शुरुआत तो इन सब में एक नाम याद आता है दही। बड़ी गुणी है ये दही, पर कब यह आयुर्वेद के ऋषि मुनियों के वचन से आप जान सकते हैं -
 - दही हमेशा ताजी ही प्रयोग करनी चाहिए।
 - रात्री में दही के सेवन को हल्का काला नमक,शक्कर या शहद  के साथ ही किया जाना चाहिए।
 - मांसाहार के साथ दही के सेवन को विरुद्ध माना गया है।
 - दही दस्त या अतिसार के रोगियों में मल को बांधनेवाली होती है,पर सामान्य अवस्था में अभिस्यंदी अर्थात कब्ज कर सकती है।

- ग्रीष्मऋतु में जब लू चल रही हो तब दही की लस्सी ऊर्जा प्रदान करने वाली तथा शरीर में जलीयांश की कमी को दूर करती है।
- नित्य  सेवन से दही का प्रभाव शरीर के लिए गुणकारी हो जाता है।
- मधुमेह से पीडि़त रोगियों में दही का सेवन संयम से करना चाहिए।
- दही का सेवन कुछ आयुर्वेदिक औषधियों में सह्पान के साथ कराने का भी  विधान है, जिससे दवा का प्रभाव बढ़ जाता है।
- दही से बना मट्ठा कोलाईटीस के रोगियों में रामबाण आयुर्वेदिक दवा है ।
- बच्चों में ताजी दही पेट सम्बंधी विकारों को दूर करती है।
-दही एवं कच्चे केले को पकाकर आंवयुक्त अतिसार (म्युकोइड स्टूल ) को रोका जा सकता है।
- जब खांसी,जुखाम,टांसिल्स एवं, सांस की तकलीफ  हो तब दही का सेवन न करें तो अच्छा।
- दही सदैव ताज़ी एवं शुद्ध घर में मिटटी के बर्तन  क़ी बनी हो तो अत्यंत गुणकारी होती है।
- त्वचा रोगों में दही का सेवन सावधानी पूर्वक चिकित्सक के निर्देशन में करना चाहिए ।
- मात्रा से अधिक दही के सेवन से बचना चाहिए।
- अर्श (पाईल्स ) के रोगियों को भी दही का सेवन सावधानीपूर्वक करना चाहिए तो ऐसी है दही ,बड़ी गुणकारी,रोगों में दवा पर सावधानी से करें प्रयोग।इसी  आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :http://religion.bhaskar.com/article/yoga-yogurt-must-also-remember-these-things-because-2395740.html

पेट में हों कीड़े तो इससे अच्छा नहीं मिलेगा उपाय

हमारे पेट में कुछ परजीवी अपना आसरा बनाकर रहते हुए। कुछ शरीर से बाहर निवास करते हैं तो कुछ शरीर के अन्दर हमारे ही भोजन पर निर्भर रहते हैं।ये जीव अपनी संख्या में वृद्धि कर हमारे शरीर को नुकसान पहुंचाते है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार ये परजीवी गोलकृमी,फीता कृमी,पिनकृमी आदि नामों से जाने जाते हैं। इनमें कुछ  हेल्मिन्थवर्ग के जीव हैं। जो धीरे-धीरे अपनी संख्या को बढाते हैं। कुछ सूक्ष्म जीव अमीबा। जैसे होते हैं जो शरीर में सहजीवी के रूप में रहते हैं तथा शरीर में पाचन सहित मल निर्माण क़ी प्रक्रिया में भी भाग लेते है।
लेकिन कुछ जीव परजीवी के रूप में रहकर आतों क़ी श्लेष्मा झिल्ली को नुकसान पहुंचाते हैं। आयुर्वेद में भी इन कृमियों के इलाज के लिए कुछ नुस्खे बताये गए हैं। जो इन्हें खींच कर बाहर निकालते हैं तथा इनकी प्रकृति से उलट होने के कारण इन्हें जीने के विपरीत वातावरण बना देते हैं। इसके अलावा यदि इनके उत्पन्न होने वाले कारणों को छोड़ दिया जाए तो ये फिर कभी नहीं पनपते हैं। आयुर्वेद में बताये  गए 20 प्रकार के इन कृमियों की चिकित्सा हेतु कुछ नायाब नुस्खे निम्न हैं एजिनका उचित प्रयोग इन्हें निर्मूल कर सकता है ।
- धतूरे के पत्तों का रस या पान के पत्तों का रस को कपूर मिलाकर एक कपडे के टूकडे में लेप करें,अब इस कपडे को सिर में बांधकर रात में आराम से सो जाएँ एप्रात:काल बालों को अ'छी तरह धोएंएइससे सिर के सारे कृमी मर जायेंगे I
पलाश के बीज वायविडंग। चिरायता और नीम के सूखे पत्ते समान भाग में लेकर धतूरे के पत्ते के स्वरस के साथ पीसकर मालिश या लेप करें त्वचा या बालों के कृमी दूर हो जाते हैं।
- करंज क़ी गिरी ,पलाश के बीज,देशी अजवाइन और विडंग इन सबको मिलाकर चूर्ण बनाकर &ग्राम क़ी मात्रा में गुड के साथ गुनगुने पानी से देने पर पेट के कृमी नष्ट होते हैं।
- पारसीक अजवायन ,नागरमोथा,पीपर,काकडासींगी,वायविडंग। एवं अतीश को समभाग लेकर ग्राम क़ी मात्रा में गुड के  साथ खिलाने से पेट के कृमी मर कर बाहर निकल जाते हैं। वायविडंग,सैंधा नमक एयवक्षार एपलास के बीज।अजवायन,हरड एवं कम्पिल्लक को समभाग मिलाकर चूर्ण बनाकर 4,6 ग्राम क़ी मात्रा में गुड के साथ खिलाना भी कृमियों से निजात दिलाता है।-भद्रमुस्तादीक्वाथ, कृमीमुद्गररस, कृमीकुठाररस,विडंगारिष्ट,मुस्तकारिष्ट आदि कुछ ऐसी आयुर्वेदिक औषधियां हैं जिनका चिकित्सक के निर्देशन में प्रयोग बच्चों से लेकर बड़ों तक के पेट में पाए जानेवाले कीड़ों को दूर कर सकता है आवश्यकता है तो सिर्फ अच्छी तरह से धोकर उबालकर और पकाकर भोजन करने की।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :http://religion.bhaskar.com/article/yoga-this-is-the-panacea-for-stomach-bugs-2392690.html







कायाकल्प के लिए सबसे सरल उपाय है मट्ठा


भारतीय रसोई, व्यंजन, संस्कृति एवं खान पान के तौर तरीके पूरी दुनिया में नायब हैं। हमारे मसाले आज भी औषधि के रूप में दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। 'घी' हो या 'दही' सभी का अपना महत्व है। ऐसे ही हमारे दादी-नानी द्वारा गांव से लेकर शहर तक अपनी खुशबू बिखेरने वाला दूध से बना "मट्ठा" कौन नहीं जानता।
इसे संस्कृत में 'तक्र' कहा जाता है इसे मिटटी के बर्तन में सबसे पहले दूध को गर्म कर उसके सोलहवें हिस्से को जलाकर, ठंडा होने के लिए छोड़कर जब साधारण गर्म रहे तब दही की जामन लगा दें, जामन डालने के 10-12 घंटे बाद जब दही बन जाए तब साफ़ मथानी में खूब मथकर उसमें चौथाई पानी डाल दें, यदि व्यक्ति स्वस्थ हो तब मट्ठे में से घी न निकालें और यदि रोगी हो तो घी निकालकर सेवन करान चाहिए। आयुर्वेद में इसके गुणों का बखान किया गया है।
आईये अब हम आपको बताते हैं इसके गुण :
- मट्ठे का कल्प अर्थात केवल मट्ठे को निश्चित मात्रा में निश्चित दिन तक क्रम से बढाते हुए, एक मात्रा पर पहुंचकर रोगी के अनुसार चिकित्सक के निर्देशन में फिर उसी क्रम में घटाना 'कल्पचिकित्सा' कहलाता है और अगर यह 'कल्प' स्वस्थ व्यक्ति में नियमित कराया जाय तो शरीर में झुर्रियां नहीं पड़ती, बुढापा देर से आता है, बाल जल्दी सफ़ेद नहीं होते।
- मट्ठा दीपन ग्राही होता है, अर्थात भूख बढाने वाला, कोलाइटिस के रोगियों के लिए रामबाण औषधि है, यह वायु को शांत करता है।
- ताजा बना मट्ठा पाईल्स के रोगियों के लिए हितकारक है।
- जाड़ों के मौसम में अग्निमांद, अरुचि, वातव्याधि, उल्टी आना, भगंदर, सफ़ेददाग, अतिसार, उदर रोगों एवं कृमि रोगों में मट्ठे का सेवन हितकारी होता है।
- स्वस्थ व्यक्ति में मट्ठे का सेवन सदैव भोजन के आधे घंटे बाद करना चाहिए।
- ताजा मीठा मट्ठा एसिडीटी को दूर करता है।
- मट्ठा पचने में हल्का होता है, यदि रोगी कोई भी भोज्य पदार्थ नहीं पचा पाता है तो उसे मट्ठे का सेवन कराना चाहिए।
- कोलाईटीस के रोगियों में मट्ठे के साथ पंचामृतपर्पटी का कल्प चमत्कारिक प्रभाव दर्शाता है। कहा गया है क़ि जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को दूर करते हैं वैसे ही मट्ठा कोलाईटीस को दूर करता है। बस ध्यान रहे की गर्मी के दिनों में मट्ठा खट्टा न हो जाय, अतः गर्मी के मौसम में मट्ठे के मटके को कपड़ा लपेटकर, बालू की रेट बिछाकर जल छिड़कने की व्यवस्था रखनी चाहिए।
इसी आर्टिकल को पढने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें  :http://religion.bhaskar.com/article/yoga--ayurvedic-remedies-regarding-yogurt-2400981.html

आयुर्वेदिक उपाय: इस तरह दूर भगाएं टेंशन को...


युग बदल रहा है ,यह सत्य है। आज मानव जीवन भी युग के अनुसार परिवर्तित हो रहा है,आज हमारे पास समय कम है, दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी  प्रतिस्पर्धा क़ी दौड़ शरीर पर अनावश्यक तनाव पैदा कर रही हैं। हाँ यह सत्य है ,कि़ तनाव हर उम्र एवं युग में था ,अगर नहीं तो हमारे ऋषि  मुनियों ने पंचकर्म की  तकनीक शिरोधारा को विकसित न किया होता। यूँ तो पंचकर्म अपनी विभिन्न विधियों द्वारा चिकित्सा के लिए जाना जाता है, परन्तु अभ्यंग एवं शिरोधारा जैसी तकनीक आज पूरी दुनिया में अपनाई जा रही है।
आइये ऐसी ही एक तकनीक से हम आपका परिचय कराते हैं, जिसका नाम है'शिरोधारा पंचकर्म क़ी इस तकनीक का प्रयोग आज हेल्थ टूरिज्म एवं रिसोर्ट को विकसित करने में किया जा रहा है। अमेरिका एवं यूरोपीयन यूनियन के देशों में स्पा में लोग इस तकनीक से लाभ ले रहे रहे हैं। इस तकनीक को केरल के पंचकर्म चिकित्सक भी रोगियों के साथ- साथ  स्वस्थ व्यक्तियों को मानसिक रूप से स्वस्थ रखने में प्रयोग कराते रहे है। यह तकनीक शिरो- अर्थ सिर एवं धारा- अर्थ एक धार के रूप में द्रव्य गिराना से बनी है , अर्थात शिर पर एक निश्चित दूरी से धारा के रूप में द्रव्य गिराना शिरोधारा कहलाता है।  द्रव्य :दूध ,जल ,तक्र ,नारियलपानी या औषधि सिद्धित तेल हो सकता है , जिसके अनुसार इसे क्षीरधारा,जल धारा ,तक्रधारा, तैलधारा आदि नामों से जाना जाता है।
विभिन्न आधुनिक शोध इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि़  शिरोधारा से एंजायटी के स्तर को कम करने में मदद मिलती है, इसका कारण प्लाज्मा नोराड्रेनालीन एवं यूनिनरी सेरोटोनीन के स्तर में कमी आना है। इसे आयुर्वेदिक चिकित्सक सुख-चिकित्सा या रेस्टोरटिव ट्रीटमेंट  के रूप में प्रयोग कराते हैं। शिरोधारा का प्रयोग : साइनोसाईटिस,नींद न आना,भूलना ,सुनाई न देना,बालों का असमय सफ़ेद होना तथा झडना,चक्कर आना ,सोरीअसिस जैसे त्वचा रोगों में आयुर्वेदिक चिकित्सक  प्रयोग कराते हैं।  बस देर किस बात क़ी है,आप भी आज ही इस पंचकर्म क़ी  तकनीक का लाभ लें और किसी नजदीकी पंचकर्म केंद्र में जाकर विशेषज्ञ चिकित्सक के निर्देशन में अपने मानसिक स्वास्थ्य को संरक्षित करें।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें  :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-pensioners-which-will-be-tension-2408034.html

क्या आप जानते हैं ये आयुर्वेद आया कहां से नहीं, तो लीजिए हम बताते हैं!


आज पूरी दुनिया आयुर्वेद की दीवानी है ,पर क्या अपने  कभी सोचा है,आयुर्वेद धरती पर कैसे आया ,तो लीजिये हम बतातें हैं आपको एक नायाब कहानी। सृष्टी के नियंता ब्रह्मा को जब एहसास हुआ कि़ इस धरती पर मेरी रचित जीव रचनाएँ रोग से ग्रसित होकर दु:ख पा रही हैं ,तब उन्होंने आयुर्वेद की रचना की  और अपने इस ज्ञान को सूत्र रूप में दक्ष प्रजापति को दिया,दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमार भाइयों को प्राप्त हुआ,जिन्होंने इस ज्ञान को देवताओं के राजा इन्द्र को दिया,इन्द्र से यह ज्ञान पृथ्वीलोक पर महर्षि भारद्वाज सशरीर लेकर आये और महर्षि भारद्वाज से अग्निवेश एवं धन्वन्तरी ऋषियों क़ी परम्पराओं के  आचार्य चरक ,सुश्रुत  एवं अन्य  को यह ज्ञान प्राप्त हुआ।
कालांतर में इन ऋषियों ने अपने अनुभवों को जोड़कर अपनी -अपनी संहिताएँ रचित की। महर्षि चरक यायावर ( घुमंतू ) ऋषि थे,उन्होंने पेड़,पौधों ,जीव ,जंतुओं से प्राकृतिक अनुभव लेकर प्राणियों में उत्पन्न रोगों को ,जानने,पहचानने एवं उनकी चिकित्सा के नुस्खे एवं  पंचकर्म जैसी   विधा को 'काय- चिकित्सा के रूप में विकसित किया,जबकि महर्षि सुश्रुत ने शरीर में उत्पन्न शल्यों की चिकित्सा की विधियां विक्सित  की ,जो बाद में 'शल्य -चिकित्सा  के रूप में क्षार-सूत्र आदि अनेक विधियों के माध्यम से  लोकप्रिय हुई ।  ऐसे ही आचार्य वाग्भट ने आयुर्वेद के आठ अंगों में सम्पूर्ण चिकित्सा  विज्ञान को अष्टांग आयुर्वेद के नाम से वर्गीकृत  किया। दक्षिण में अष्टांग हृद्यम नामक ग्रन्थ आज भी अत्यंत लोकप्रिय है।
इन बड़े महर्षियों के ग्रन्थ  आज  'वृहत्त्रयी के नाम से जाने जातें हैं ढ्ढ  ऐसे ही रोगों को पहचानने के लिए आचार्य माधव  ने माधव -निदान नामक ग्रन्थ  की रचना की। बच्चों के रोगों की  विशेष व्याख्या एवं चिकित्सा की विधियों  एवं नुस्खों को सूत्र रूप में लाने का श्रेय महर्षि काश्यप को जाता है। ऐसे ही अनेक आचार्यों  की परम्परा से मिलकर बना आयुर्वेद ,जिसमें  इंसान ही नहीं जानवरों से लेकर पेड़ पौधों तक की  चिकित्सा के अनेकों गूढ़ रहस्य एवं नायब नुस्खे मौजूद हैं ,बस जरूरत है तो रह्स्यवेधन की।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए   दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

बस इसे ठीक कर ले तों सारी बीमारियों का हो जाएगा सुपड़ा साफ


अक्सर हम बीमार होते हैं और दवा लेकर ठीक हो जाते हैं,दवा किसी भी पैथी क़ी हो सकती है। हमारा उदेश्य केवल ठीक होना होता है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है कि जो दवा हमने ली उसने हमारे रोग को तो ठीक किया,पर क्या उसने किसी और रोग को तो उत्पन्न नहीं कर दिया, आयुर्वेद यह मानता है। चिकित्सा वह अच्छी जो एक रोग को ठीक कर दूसरे रोग को उत्पन्न न करे। जल्दी ठीक होने के चक्कर में हम प्राय: ऐसी दवाओं का प्रयोग कर बैठते हैं, जो एक बीमारी को तो ठीक करती है, पर तोहफे के रूप में कुछ नई बीमारियों की सौगात दे जाती  है, इन सबके विपरीत आयुर्वेद रोगों के मूल पर प्रहार करता है , जिससे रोग पूरी तरह निर्मूल हो जाता  है , बस आवश्यकता है  'अग्नि ' की चिकित्सा  करने की।

आयुर्वेद में सभी रोगों का कारण मन्दाग्नि माना गया है , आइये हम आपको अग्नि का फंडा बताते हैं। आयुर्वेद अनुसार हमारे  शरीर में 13 प्रकार क़ी अग्नि  होती है , यह यदि पञ्च-महाभूतों को पचाती है तो पांच भूतअग्नि  कहलाती  है,यदि सात धातुओं को पचाती है तो सात धात्वाग्नि कहलाती है और सबसे प्रमुख आहार को पचाने वाली जठराग्नि को तो आप जानते ही होंगे और यदि यह मंद या तीक्ष्ण  हो गयीं तो रोग होना तय समझिए। अत: स्वस्थ रहने के लिए सभी 13 अग्नियों का सम रहना आवश्यक है, है न कमाल क़ी बात, पर यह सत्य है। आयुर्वेदिक चिकित्सक इसी 'अग्नि को ध्यान में रखकर चिकित्सा करते हैं ,जिनकी अग्नि  मंद होती है उन्हें पाइल्स,अतिसार एवं कोलाईटीस जैसे रोग हो सकते हैं,जिनकी अग्नि विषम है उन्हें ज्वर ,प्रमेह ,पांडू,प्रमेह ,त्वक रोग आदि आक्रान्त करते हैं और तीक्ष्ण अग्नि  वाले को 'भस्मक नामक  रोग हो सकता है।
अत: हमें भी अपने खान-पान ,आहार -विहार,प्रकृति आदि के अनुसार 'अग्नि का विचार करते हुए चिकित्सक के परामर्श से औषधि सेवन करना चाहिए।  'अग्नि को ध्यान में रखकर क़ी गयी चिकित्सा एवं दी गयी औषधि केवल रोग को ही ठीक नहीं करती बल्कि अन्य रोग को उत्पन्न भी नहीं करती। अत: यदि आप किसी भी रोग से पीडि़त हों तो आयुर्वेदिक चिकित्सा आपके लिए बेहतर विकल्प हो सकता है, जहां सुरक्षित,प्राकृतिक एवं सुलभ औषधियों से चिकित्सा की जाती है।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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सेक्स की ये एक भ्रांति है युवाओं की परेशानी का कारण


जीवन बचपन, यौवन एवं बुढापे का एक मिश्रण है जहां शारीरिक निर्माण,विकास एवं क्षय क़ी प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। बचपन निर्माण एवं विकास क़ी अवस्था का नाम है, तो जवानी विकास एवं परिवर्तन क़ी शारीरिक अवस्था है, इसी प्रकार बुढापा क्षय एवं शारीरिक मुक्ति क़ी ओर जाने का मार्ग है। बचपन अल्हड़, मस्त एवं चंचलता से अटखेलियाँ लेता हुआ यौवन क़ी ओर कदम रखता है।
विकास  क़ी इस प्रक्रिया में शारीरिक परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है, यह स्वर एवं  जननांगों के विकास जैसे शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ विपरीत लिंग क़ी तरफ आकर्षण जैसे मानसिक परिवर्तनों के झंझावात से गुजरता है। जिसे हम जवानी कहते हैं। कहते हैं पानी और जवानी क़ी धार को रोकना मुश्किल होता है, यह बिल्कुल सत्य है और इसी उम्र में लोग सेक्स से सम्बंधित गलतफहमियों का शिकार हो जाते हैं।
 जननांगों में होने वाले स्वाभाविक परिवर्तनों को युवा बड़ी कौतूहलता से लेते हैं और इस पर अश्लील साहित्य का तडका लग गया तो फ़िर एकांत में 'हस्तमैथुन' करने लग जाते हैं, यह क्रम लगातार स्वाभाविक रूप से चलता रहता है तथा उनके अंतर्मन क़ी कौतूहलता को कुछ हद तक शांत भी करता है, पर अचानक इन युवाओं का ध्यान किसी विज्ञापन पर पड़ जाता है, जहां बचपन क़ी गलतियों क़ी व्याख्या भयावह तरीके से क़ी गयी होती है। अधूरी  एवं भ्रामक जानकारी उनके युवा मन-मस्तिष्क को बुरी तरह प्रभावित करती है तथा अक्सर ऐसे युवा अपने जननांगों क़ी लम्बाई को लेकर भ्रम में पड़ जाते हैं तथा 'हस्तमैथुन' को  कारण मानकर नीम- हकीम के चक्कर में पड़ जाते हैं। ऐसे युवा अपना धन एवं समय के साथ-साथ अपनी ऊर्जा व्यर्थ गवांते हैं। बस आवश्यकता मात्र इतनी होती है, कि कोई उन्हें सही मार्गदर्शन दे, माता -पिता का इस उम्र में अपने बच्चों पर ध्यान न देना भी एक कारण होता है।
माता-पिता अक्सर ऐसे बच्चों को लेकर चिकित्सक के पास आते हैं तथा बच्चे के अंतर्मुखी एवं एकान्तप्रिय होने जैसे लक्षणों को बतलाते हैं, जब चिकित्सक बच्चे की गहराई में विवेचना करते हैं तो इसके पीछे का कारण उनके मन-मस्तिष्क में 'हस्तमैथुन' से सम्बंधित भ्रान्ति घूमना जान पाते हैं। कई बार तो ऐसे युवा अवसाद से भी ग्रस्त हो जाते हैं, अतः उन्हें यह समझाने की सख्त आवश्यकता है, क़ि जननागों को छूने या 'हस्तमैथुन' (मास्टरबेट) करने से कोई शारीरिक कमजोरी नहीं आती है।
उन्हें यह बताना आवश्यक है, क़ि हमारे शरीर में प्रति सेकेण्ड 2000 शुक्राणु  बनते हैं तथा ये जवानी के आरम्भ से ही बनना प्रारम्भ हो जाते हैं, इन्हें परिपक्व  होने में कुछ हफ्ते मात्र लगते हैं, तथा ये स्वयं भी इजेकुलेट (बाहर निकलना ) हो जाते हैं और यदि इजेकुलेट नहीं हुए तो शरीर में ही अवशोषित हो जाते हैं। अतः सेक्स  या 'हस्तमैथुन' करने मात्र से शुक्राणुओं के उत्पादन पर ख़ास फर्क नहीं पड़ता, यह सामान्य रूप से यथावत होता रहता है। आधुनिक विज्ञान भी 'हस्तमैथुन' को सामान्य प्रक्रिया मानता है, हाँ यह सत्य है, क़ि हस्तमैथुन में ऊर्जा क़ी खपत स्वाभाविक सेक्स के दौरान खर्च होने वाली ऊर्जा से काफी कम होती है। यह बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए क़ि प्राकृतिक सेक्स शारीरिक आवश्यकता है, जबकि 'हस्तमैथुन' एक अप्राकृतिक विकल्प मात्र। बस ध्यान रहे "अति सर्वत्र वर्जयते"।

अचूक उपाय: जिनसे दिमाग कम्प्युटर से भी तेज चलने...


आयुर्वेद के गूढ़ रहस्यों के लिए आज पूरी दुनिया में जाना जा रहा है। लोग इसे आधुनिक चिकित्सा पद्धति के विकल्प के तौर पर अपना रहे हैं। लेकिन इसके साथ- साथ चुनौतियों के रूप में नए-नए रोग भी सामने आ रहे हैं। कभी एच .आई.वी ,तो कभी स्वाईन फ्लू , जिसके बारे में आयुर्वेद के मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कहा था बीमारियों के नाम पर मत जाओ ,हर युग में उसका नाम अलग होगा आज ऐसी कई बीमारियां हैं, जो मानव के जीवन को बोझिल बना रही हैं,जिनमे शरीर प्राणयुक्त तो रहता है, पर जीवन जीना कठिन हो जाता है। बचपन से ही होनेवाली प्रोजेरिया से लेकर अल्जाइमर जैसी बुढापे क़ी भूलने क़ी बीमारी आमतौर पर आज देखने में आ रही हैं।इसी प्रकार कैंसर जैसा रोग रोगी को तिल -तिल मारने पर मजबूर कर रहा है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अपनी सीमाओं में बंधकर ही इन रोगों का उपचार कर रहा है ,हो भी क्यों न, सम्पूर्णता किसी भी एक तकनीक,पद्धति या विधि से प्राप्त नहीं हो सकती है। आवश्यकता है, हर पद्धति से कुछ अच्छी चीजों को निकालकर अपनाने की और इसी सन्दर्भ में आयुर्वेद के महान यायावर ऋषि चरक ने चार मेध्य रसायनों का वर्णन चरक संहिता नामक ग्रन्थ में किया, कहा तो यह भी जाता है, कि इन रसायनों का प्रयोग मेधा यानी बौद्धिक क्षमता  को बढ़ानेवाला है। ऐसी ही कुछ आयुर्वेदिक औषधीयों के प्रयोग इस प्रकार हैं।
-मंडूकपर्णी का स्वरस  5-10 मिली की मात्रा में पीना मस्तिष्क दौर्बल्य के लिए लाभकारी मेध्य रसायन है।-मुलेठी का चूर्ण 5-10 ग्राम की मात्रा में दूध से लेना रोगों को नष्ट करने वाला मेध्य रसायन है।-शंखपुष्पी को फल एवं मूल के साथ टुकड़ों में काटकर,साफकर  कल्क बनाकर लेना विशेष रूप से मेधा (इन्टेलेक्ट) को बढ़ानेवाला रसायन है।-पिप्पली को अपने सामथ्र्य के अनुसार (5,7,8,10 की संख्यामें ) चूर्ण बनाकर कपडे से छानकर  मधु और घी के साथ एक वर्ष तक सेवन करना अनेक रोगों से मुक्त करनेवाला रसायन है।-तीन -तीन पिप्पली को प्रात: काल,भोजन के पूर्व एवं भोजन के बाद लेना भी रसायन गुणों को देनेवाला है।-पिप्पली  को पलाश के क्षार के जल में भावना देकर गाय के घी के साथ भूनकर,चूर्ण को मधु या घी के साथ मात्रा से सेवन  करना भी रोगों से मुक्ति दिलानेवाला रसायन है ।-भोजन करने के बाद एक हरड का चूर्ण ,भोजन लेने से पहले दो बहेड़े का चूर्ण एवं भोजन करने के बाद चार आंवले का चूर्ण मधु और घी के साथ सेवन करना सदैव युवा रखनेवाला रसायन है।-मुलेठी ,वंशलोचन,पिप्पली को सममात्रा में मिलाकर चूर्ण बनाकर मधु ,घृत एवं मिश्री के साथ  उम्र  के अनुसार  निर्धारित मात्र में 1 वर्ष तक लेना रसायन  औषधि का प्रभाव उत्पन्न करता है।
ये तो चंद नुस्खे हैं, ऐसे ही कई गुणकारी,अचूक एवं प्रभावी नुस्खों से आयुर्वेद भरा पडा है ,बस आवश्यकता है चिकित्सकीय निर्देशन में प्रयोग की ढ्ढ नए- नए नाम से आनेवाली बीमारियों की चिकित्सा हेतु युगों -युगों तक ये नुस्खे उतने ही प्रभावी हैं जितने आचार्य चरक या सुश्रुत के जमाने में रहे होंगे।इसी आर्टिकल को पढ़ने  के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :http://religion.bhaskar.com/article/nfallible-remedy-that-the-mind-will-run-faster-than-computer-2376248.html

जानिए, कैसे बना कायाकल्प करने वाला च्यवनप्राश?

प्राचीनकाल में ऋषि मुनियों द्वारा स्वयं का "कायाकल्प" कर लम्बी उम्र पाने पाने का वर्णन मिलता है। ऐसे ही एक ऋषि थे च्यवन, जिन्होंने स्वयं के चिर यौवन को प्राप्त करने के लिए लगभग 49 से अधिक जड़ी-बूटियों को मिलाकर एक नुस्खा तैयार किया, जिसे बाद में "च्यवनप्राश" के नाम से जाना गया।इस नुस्खे को लिखित रूप से सर्वप्रथम दुनियाँ के सामने लाने का श्रेय महर्षि चरक को जाता है। महर्षि चरक के अनुसार "च्यवनप्राश" सभी रसायनों में श्रेष्ठ रसायन है। "च्यवनप्राश" नामक नुस्खे में सबसे प्रमुख घटक आंवला है, जिसके गुणों से आप पूर्वपरिचित हैं, आंवला स्वयं के विटामिन -"सी" को सबसे लम्बे समय तक अपने अन्दर सुरक्षित रखने के लिए जाना जाता है और एक ख़ास बात यह है क़ि सुखाने या जलाने पर भी इसमें स्थित विटामिन -"सी" नष्ट नहीं होता, बल्कि और बढ़ जाता है।च्यवनप्राश में आंवले के अतिरिक्त अश्वगंधा, शतावरी, पिप्पली, भूमिआमलकी, वासा आदि औषधियों का प्रयोग घी और शहद के साथ होता है और यदि "अष्टवर्ग " क़ी  औषधियों के साथ इसका निर्माण हो तो इसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। "च्यवनप्राश " का प्रयोग शरीर क़ी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाने, पाचन शक्ति को मजबूत करने, याददाश्त बढाने के साथ ही श्वसन संस्थान, लीवर एवं गुर्दों क़ी कार्यप्रणाली को संतुलित कर मजबूत करने में होता है।
इसके अलावा "च्यवनप्राश" आपकी त्वचा क़ी कान्ति को बढ़ाकर झाइयों को भी दूर करता है। यह शरीर में केल्शियम के अवशोषण को बढ़ाकर हड्डियों एवं दाँतों को मजबूत करता है। तो है न एक गुणकारी अचूक नुस्खा, जिसके शोधन (पंचकर्म) के पश्चात प्रयोग से आपका "कायाकल्प" हो जाएगा और आप स्वयं को चिर-युवा एवं और अधिक स्फूर्तिवान पायेंगे।इस आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :http://religion.bhaskar.com/article/yoga-learn-how-to-make-chyawanprash-2364614.html

ये हैं एलर्जी से बचने के सबसे आसान आयुर्वेदिक तरीके..


"एलर्जी" एक आम शब्द, जिसका प्रयोग हम कभी 'किसी ख़ास व्यक्ति से मुझे एलर्जी है' के रूप में करते हैं। ऐसे ही हमारा शरीर भी ख़ास रसायन उद्दीपकों के प्रति अपनी असहज प्रतिक्रया को 'एलर्जी' के रूप में दर्शाता है। बारिश के बाद आयी धूप तो ऐसे रोगियों क़ी स्थिति को और भी दूभर कर देती है। ऐसे लोगों को अक्सर अपने चेहरे पर रूमाल लगाए देखा जा सकता है। क्या करें छींक के मारे बुरा हाल जो हो जाता है।
हालांकि एलर्जी के कारणों को जानना कठिन होता है, परन्तु कुछ आयुर्वेदिक उपाय इसे दूर करने में कारगर हो सकते हैं। आप इन्हें अपनाएं और एलर्जी से निजात पाएं !
- नीम चढी गिलोय के डंठल को छोटे टुकड़ों में काटकर इसका रस हरिद्रा खंड चूर्ण के साथ 1.5 से तीन ग्राम नियमित प्रयोग पुरानी से पुरानी एलर्जी में रामबाण औषधि है।
- गुनगुने निम्बू पानी का प्रातःकाल नियमित प्रयोग शरीर में विटामिन-सी की मात्रा की पूर्ति कर एलर्जी के कारण होने वाले नजला-जुखाम जैसे लक्षणों को दूर करता है।
- अदरख,काली मिर्च,तुलसी के चार पत्ते ,लौंग एवं मिश्री को मिलाकर बनायी गयी 'हर्बल चाय' एलर्जी से निजात दिलाती है।
- बरसात के मौसम में होनेवाले विषाणु (वायरस)संक्रमण के कारण 'फ्लू' जनित लक्षणों को नियमित ताजे चार नीम के पत्तों को चबा कर दूर किया जा सकता है।- आयुर्वेदिक दवाई 'सितोपलादि चूर्ण' एलर्जी के रोगियों में चमत्कारिक प्रभाव दर्शाती है।
- नमक पानी से 'कुंजल क्रिया' एवं ' नेती क्रिया" कफ दोष को बाहर निकालकर पुराने से पुराने एलर्जी को दूर कने में मददगार होती है।
- पंचकर्म की प्रक्रिया 'नस्य' का चिकित्सक के परामर्श से प्रयोग 'एलर्जी' से बचाव ही नहीं इसकी सफल चिकित्सा है।
- प्राणायाम में 'कपालभाती' का नियमित प्रयोग एलर्जी से मुक्ति का सरल उपाय है।
कुछ सावधानियां जिन्हें अपनाकर आप एलर्जी से खुद को दूर रख सकते हैं :-
- धूल,धुआं एवं फूलों के परागकण आदि के संपर्क से बचाव।
- अत्यधिक ठंडी एवं गर्म चीजों के सेवन से बचना।
- कुछ आधुनिक दवाओं जैसे: एस्पिरीन, निमासूलाइड आदि का सेवन सावधानी से करना।
- खटाई एवं अचार के नियमित सेवन से बचना।इसी आर्टिकल को पढने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-easiest-ayurvedic-remedies-to-avoid-allergies-2270475.html

इन आयुर्वेदिक उपायों से पाएं गुणवान संतान...


आयुर्वेद एक संपूर्ण जीवन दर्शन है धर्मं, अर्थ, काम एवं मोक्ष के उद्देश्य से पूर्ण इस विज्ञान में गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यंत गुणों की वृद्धि के लिए संस्कारों का विधान है। गर्भधारण से पूर्व अच्छी गुणवान संतति प्राप्त करने हेतु "पुंसवन संस्कार" का वर्णन आयुर्वेद में मिलता है।
पुंसवन संस्कार का उद्देश्य विकृति रहित, गुणवान संतान की प्राप्ति से है। इस सम्बन्ध में बताये गए कुछ सरल उपाय संतान प्राप्ति में मददगार हो सकते हैं। आयुर्वेद के मनीषियों ने गर्भधारण से सम्बंधित विषयों को बड़ी सहजता से शास्त्रों में उल्लेखित किया है, इसके कुछ गूढ़ पहलु आपके सम्मुख प्रस्तुत हैं :-
- एक महीने तक ब्रह्मचर्य का पालन (अर्थात मन, वचन एवं कर्म से यौन विषयों से एक माह तक दूर रहना) करने वाले पुरुष को उड़द की दाल से बनाई गयी खिचडी के साथ दूध खाने का निर्देश है, साथ ही मासिक स्राव रुकने से अंतिम दिन (ऋतुकाल) के बाद जोड़े वाले दिनों में जैसे छठी, आठवीं एवं दसंवीं रात को यौन सम्बन्ध बनाने का निर्देश है, परन्तु ऐसा नहीं है क़ि अयुग्म दिनों में अर्थात पांचवीं, सातवीं एवं नौवीं रात्रि को यौन सम्बन्ध बनाने से संतान क़ी प्राप्ति नहीं होगी।
- ऋतुकाल के बाद की चौथी रात्रि की अपेक्षा,छठी रात्रि एवं छठी की अपेक्षा आठंवी रात्रि को यौन सम्बन्ध बनाना संतान प्राप्ति की दृष्टीकोण से अच्छा माना गया है।
- ऋतुकाल के सोलहवें से तीसवें दिन यौन सम्बन्ध बनाना संतान प्राप्ति क़ी दृष्टि से अच्छा नहीं माना गया है।
- आयुर्वेद मतानुसार ऋतुकाल के सामान्य चार दिनों में से पहले दिन स्त्री से यौन सम्बन्ध बनाना आयु को नष्ट करनेवाला बताया गया है तथा चौथे दिन के बाद यौन सम्बन्ध बनाना संतानोत्पत्ति क़ी दृष्टी से उत्तम माना गया है अर्थात मासिक स्राव के दिनों को छोड़कर ही यौन सम्बन्ध बनाने का निर्देश दिया गया है।
- उत्तम संतान के लिए लक्ष्मणा, वट के नए कोपल, सहदेवा एवं विश्वदेवा में से किसी एक को दूध के साथ पीस कर स्त्री के दाहिने एवं बाएं नासिका क्षिद्र में डालना चाहिए।
- इस प्रकार गर्भधारण संस्कार में बताये गए नियमों से उत्पन्न संतान बलवान, ओजस्वी, आरोग्ययुक्त एवं दीर्घायु होना उल्लेखित है।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-gifted-children-may-have-these-herbal-remedies-2270404.html

पथरी के दर्द से तुरंत निजात दिलाएगा यह रामबाण नुस्खा

आमतौर पर हम जो भी खातें या पीतें हैं उससे काम के तत्व  शरीर में अवशोषित  हो जाते हैं तथा बेकार के तत्व मळ या मूत्र के रूप में बाहर उत्सर्जित होते हैं I ऐसे ही हमारे शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है गुर्दा (किडनी) , यह दिन -रात खून को छानने में  लगा रहता है और बेकार के तत्व  को मूत्र के रूप में बाहर निकालता रहता  है जबकि  यह काम के तत्व को अवशोषित कर लेता है Iअब आप ज़रा सोचिये की जैसे चाय को छानते -छानते छन्नी में कई बार अवरोध आता है और कई बार छन्नी बेकार भी हो जाती है, ठीक इसी प्रकार हमारे शरीर के  रक्त की छन्नी 'किडनी या गुर्दा' है क्या निरंतर कार्य करने से  खराब नहीं होती होगी? ऐसा नहीं है, सयंमित खान- पान करने पर किडनी रूपी रक्त छन्नी आजीवन निर्बाध रूप से काम करती रहती है ,हाँ यदि खान -पान में कैलशियम,पोटाशियम  के आक्स़लेट,यूरेट आदि अधिक  मात्रा में खून के माध्यम से गुर्दे में छनने  को जा रहे हों तो इनका जमा होना तो तय है और इसके लगातार जमा होने से एक टूकडे का निर्माण होता है।
आयुर्वेद में पथरी के लिए 'अश्मरी' शब्द का प्रयोग हुआ है I छोटी गुर्दे की 'पथरी' को मूत्र मार्ग से बाहर  निकालने में आयुर्वेदिक नुस्खे बड़े कामयाब हैं I ऐसे ही कुछ नुस्खे निम्न हैं ,हाँ इनका प्रयोग चिकित्सक के परामर्श से ही करें तो बेहतर होगा Iगोक्षुर चूर्ण :1.5 ग्राम,खीरा बीज चूर्ण-1.5 ग्राम,ककडीबीज चूर्ण- ग्राम एवं कुलथीबीज चूर्ण -1.5ग्राम का प्रयोग रोगी की आयु के अनुसार कराने से पथरी में काफी  लाभ मिलता है।-पथरी के रोगियों में रात में कुल्थी की दाल को भिगों कर छोड़कर प्रातः उसका पानी पीने से भी लाभ मिलता है।-लगभग दो किलो नींबू का रस निकालकर,इसे एक लीटर की मात्रा  में छानकर बोतल में भर कर रख लें,अब  इसमें एक मुट्ठी कौडियाँ डाल दें,तथा बोतल को थोड़ा हिला लें, यह थोड़ा दूधिया हो जाएगा,अब इसे रोज आधा कप तबतक पीयें जबतक रस समाप्त न हो जाय,यह पथरी को निकालने का अनुभूत नुस्खा है।-कुछ आयुर्वेदिक योग भी पथरी की चिकित्सा में कारगर होते हैं जैसे  : चन्द्रप्रभावटी,श्वेतपर्पटी, चन्दनासव,गोक्षुरादीगुगुल्लू ,वरुणादीक्वाथ,त्रंणपंचमूलक्वाथ आदि, इनका प्रयोग एवं मात्रा का निर्धारण चिकित्सकीय परामर्श से ही होना चाहिए।पथ्य एवं अपथ्य : पथरी  के रोगीयों को टमाटर,पालक आदि के सेवन में संयम बरतना चाहिए। हाँ अगर पथरी काफी बड़ी हो तो फ़ौरन आधुनिक चिकित्सा  में सर्जरी या लीथोट्रीप्सी बेहतर विकल्प हो सकता है।

जिसे बोलचाल की भाषा में 'पथरी' या 'स्टोन' कहते हैं। जिन क्षेत्रों के  पानी में चूने आदि तत्व मात्रा  से अधिक पाए जाते हैं वहां 'पथरी या केलकुलस' के रोगी अधिक मिलते हैं।  ऐसे रोगियों में छोटी पथरी का तो पता ही नहीं चलता,जब पथरी बड़ी या संख्या में अधिक हो जाती है तब रोगी को पेट के नीचे  एंठन लिए असहनीय दर्द बताता है, कई बार तो रोगी दर्द से बैचैन हो उठाता है, इस दशा में चिकित्सक अल्ट्रासाउंड द्वारा पथरी के आकार को मापते हैं और आगे की सलाह देते हैं।इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-if-immediate-relief-to-the-pain-of-appendicitis-2408082.html


नमक भी है एक जहर इसलिए ध्यान रखें वरना...

हमें नमक क़ी कितनी मात्रा लेनी चाहिए,कई लोग तो ब्लडप्रेशर बढ़ जाने के डर से नमक बिल्कुल बंद कर देते हैं,वैसे भी शक्कर को यदि-स्वीटपोइजन-कहा जाता है, तो नमक के लिए - मिनरलपोइजन- शब्द  का प्रयोग किया जाता है। नमक का अधिक मात्रा में प्रयोग अनावश्यक रूप से गुर्दों क़ी क्रियाशीलता को बढ़ाकर उनकी शक्ति को क्षीण करता है। यह सत्य है,कि़ नमक हमारे भोजन में मिलने वाले स्वाद को बढाता है,लेकिन अधिक मात्रा में स्वास्थ्य पर इसका उल्टा प्रभाव पड़ता है। नमक का अधिक मात्रा में प्रयोग निम्न बिमारीयों में जीवन को दूभर बना सकता है।सरदर्द,नींद न आना,माइग्रेन,ह्रदय रोग,गुर्दे के रोग,लीवर क़ी बीमारी,गठिया,वातरोग आदि डॉ फ्रेडरीक मार्वूड द्वारा एक सौ कैंसर पीडि़तों में किये गए एक शोध के अनुसार एक को छोड़कर अधिकांश रोगी नमक के शौकीन पाए गए। हमारे शरीर को प्रतिदिन दो ग्रेन नमक की आवश्यकता होती है, जिसे हम केवल 50 ग्राम सब्जियों से प्राप्त कर सकते हैं,अर्थात यदि भोजन में पर्याप्त मात्रा में फल सब्जियों का प्रयोग हो तो अतिरिक्त नमक क़ी आवश्यकता ही नहीं है। यदि मोटे तौर पर कहा जाय तो नमक के अधिक लेने से फायदा कम और नुकसान अधिक है।हाँ, यदि एक शारीरिक रूप से अधिक सक्रिय व्यक्ति को अतिरिक्त नमक लेना आवश्यक है। अन्यथा बदन दर्द,थकान जैसे लक्षण देखे जा सकते है।अत: कहा जा सकता है , कि़ यदि आप अनिद्रा, उच्चरक्तचाप से पीडि़त हों तो आज ही नमक क़ी मात्रा अपने दैनिक भोजन में कम कर दें,देखें आपको अच्छी नींद आयेगी और आपका रक्तचाप काफी नियंत्रित हो जाएगा।इसी आर्टिकल को पढ़ने के  लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें : http://religion.bhaskar.com/article/yoga-salt-is-also-a-poison-so-keep-in-mind-or-else-2371604.html  2371604.html

आयुर्वेद के प्रणेता ऋषि भारद्वाज


आपने आयुर्वेद के ब्रह्मा से स्वर्ग लोक में इन्द्र तक क़ी ज्ञान यात्रा तो सुनी होगी,परन्तु इसका एक रोचक पहलु पृथ्वी पर आने को लेकर है आयुर्वेद ज्ञान  गंगा का लाभ स्वर्गलोक के देवता इन्द्र के माध्यम से ले रहे थे, लेकिन इस ज्ञान को पृथ्वी पर लाने का श्रेय ऋषि भारद्वाज  को जाता है I भारद्वाज ही एक ऐसे ऋषि थे ,जो सशरीर स्वर्ग लोक जा सकते थे,अतः विनय से युक्त होकर मुनियों ने उनसे प्रार्थना क़ी और कहा : मुनियों में श्रेष्ठ भारद्वाज आप आयुर्वेद क़ी ज्ञान गंगा को भू लोक पर लाने हेतु स्वर्ग लोक जाएँ, मुनियों के अनुनय को ऋषि भारद्वाज टाल न सके एवं प्राणियों क़ी रोग से मुक्ति के साधन आयुर्वेद को मृत्यु लोक में लाने हेतु स्वर्गलोक जा पहुंचे I स्वर्ग लोक में भगवान् इंद्र ने ऋषि भारद्वाज को देखते हुए प्रसन्नता से कहा -हे धर्म को जानने वाले मुनि आपका स्वागत है तथा उनका विधिपूर्वक पूजन किया इसके बाद भारद्वाज ऋषि ने इन्द्र का अभिनन्दन करते हुए मृत्यु लोक के मुनियों के वचनों को यथार्थ  रूप में सुनाया और कहा,हे देवेन्द्र इस समय मृत्यु लोक के सभी प्राणी भयंकर रोगों  से ग्रसित हैं, उन्हें इस दुःख से मुक्ति हेतु उपाय जिस तरह से हों मुझे बताइये अर्थात मुझे आयुर्वेद पढ़ाइए ताकि प्राणी रोग मुक्त हो सकें महामुनि भारद्वाज ने देवेन्द्र से आयुर्वेद को पढ़ कर थोड़े ही दिनों में पूर्ण  रूप से समझ लिया तथा स्वयं को भी रोगमुक्त कर लम्बी आयु प्राप्त क़ी I उन्होंने यह ज्ञान अन्य मुनियों को भी दिया, जिससे वे सब भी रोगमुक्त होकर चिरायु को प्राप्त हुए भारद्वाज ऋषि के बताये अनुसार अन्य ऋषियों ने भी आयुर्वेद ज्ञान-गंगा क़ी विधियों का आश्रय प्राप्त किया तथा रोगग्रस्त मानवों का कल्याण किया I  जिस समय मत्स्यावतार द्वारा भगवान् विष्णु ने वेदों का उद्धार किया उसी  समय शेष  भगवान्  ने वेदों के ज्ञान  को संपूर्ण अंगों के साथ प्राप्त किया, इसी क्रम में अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद का ज्ञान भी अवतरित हुआ कहा जाता है,क़ि एक बार शेष भगवान् पृथ्वी पर चर (जासूस ) के रूप में विचरण को निकले, उन्होंने यहाँ लोगों को अनेक रोगों से पीड़ित पाया,यह देखकर भगवान् दया से युक्त हो गए तथा इसके निवारण का उपाय सोचने लगे काफी सोच-विचार करने  के बाद वे  स्वयं भू लोक में 'विशुद्ध' नाम से  किसी   मुनि के यहाँ पैदा हुए,चूँकि शेष भगवन भू-लोक पर छुप कर आये थे तथा उन्हें किसी ने पहचाना नहीं था ,अतः वे 'चरक' के नाम से प्रसिद्द हुए तथा काय-चिकित्सा के जनक के रूप में जाने गए,इसी प्रकार आत्रेय ऋषि के शिष्यों ने भी अपने-अपने तंत्रों क़ी रचना क़ी जिनके ग्रन्थ कालांतर में लोकप्रिय हुए I इसी प्रकार देवेन्द्र ने देवताओं में श्रेष्ठ भगवान्   धन्वन्तरी से कहा क़ि आप योग्य हैं ,अतः आप प्राणियों के उपकार करने हेतु तत्पर हों ,पूर्व समय में प्राणियों के कल्याण हेतु भगवान् विष्णु तक ने मत्स्य  का रूप धारण किया अतः आप भी पृथ्वी   पर  जाएँ और काशीपुरी के मध्य वहाँ के राजा बनकर रोगों को दूर करते हुए मृत्यु लोक में आयर्वेद का प्रकाश फैलाएं I 
डॉ नवीन जोशी 
एम्.ड़ी.आयुर्वेद 
ई.मेल :ayushdarpan@gmail.com.com

आयुर्वेद और संस्कारों का महत्व


हमारे जीवन में संस्कारों का एक महत्वपूर्ण स्थान है मनुष्य जो भी करता है उसके कर्मों की छाप उसके जीवन पर पड़ती ही है I आयुर्वेद भी इन्हें संस्कारों के रूप में मानता है,कहा भी गया है ,जिसका जैसा संस्कार होगा वैसा ही उसका आचरण भी  होगा I संस्कार किसी के भी गुणों में परिवर्तन ला सकते हैं I आयुर्वेद में भी औषधियों के गुणों को बढाने के लिए संस्कारों का वर्णन है, तो फिर मानव इससे अछूता कैसे रह सकता है I 
संस्कार पूर्वजन्म के भी हो सकते हैं, और इस जन्म के भी, यह बात सुनने में अजीब जरूर लगती हो ,पर आयुर्वेद के मनीषियों ने इस बात को कई बार दुहराया है I कहा गया है कि मनुष्य युग -युग से जिन संस्कारों को अर्जित करता चला आ रहा है वे मानव जाति के  संस्कार एक पीढी से दूसरी पीढी को मिलते जाते है I संस्कार का अर्थ सुधारना,पवित्र करने से लेकर ,स्वभाव का शोधन करना होता  है I जीवन के शोधन की यह क्रिया जीवन से मृत्युपर्यंत चलती रहती है I  मनुष्य जीवन में किये जानेवाले संस्कारों की संख्या में यद्य्पी मतभेद हैं, परन्तु १६ संस्कारों को प्रमुख माना गया है जो निम्न हैं :
१.गर्भाधान संस्कार :विवाह बंधन में बंधकर परिपक्व आयु का स्वस्थ पुरुष एवं स्त्री ,शुभ दिन,नक्षत्र एवं मुहूर्त का ध्यान रखकर ,प्रसन्न मन से संतानोत्पादन के लिए यौन सम्बन्ध स्थापित कर गर्भ स्थापित करने में यदि प्रवृत होते हैं, तो यह गर्भाधान संस्कार कहलाता है I 
२. पुंसवन संस्कार : गर्भ की स्थिति निश्चित होने पर दूसरे या तीसरे माह यह संस्कार किया जाता है, इस संस्कार के दौरान पति एवं पति यह प्रतिज्ञा करते हैं, कि वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे, जिससे गर्भ को क्षति पहुंचे और अकाल में ही उसका प्रसव हो जाय, अर्थात स्वस्थ एवं गुणवान संतान प्राप्ति की दृष्टी से यह संस्कार किया जाता है I 
३. सीमंतोंन्नयन संस्कार :गर्भस्थापन के चौथे महीने (कभी ६ठे या आठवें ) महीने यह संस्कार शुक्ल पक्ष एवं  नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा  होने पर बालक की बौधिक क्षमता की वृद्धि के लिए किया जाता है, ऐसी व्यवस्था की जाती है कि गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रहे I
४. जातकर्म संस्कार : संतान उत्पन्न होने पर उसके जीवित एवं स्वस्थ रहने के लिए किये जाने वाले संस्कार जातकर्म संस्कार कहलाता   है I 
५. नामकरण संस्कार : जन्म के ग्यारहवें दिन प्रायः यह संस्कार किया जाता है, इसमें बालक को एक नाम दिया जाता है ,जिससे वह आगे चलकर संसार में जाना जाता है I 
६. निष्क्रमण संस्कार :यह संस्कार चौथे महीने में,जिस तिथि को संतान उत्पन्न हुआ हो ,उसी तिथि को किया जाता है,इस अवसर पर उसे देवस्थान ले जाया जाता है तथा बाह्य सृष्टी से उसका परिचय पहली बार होता है I 
७. अन्नप्राशन संस्कार : जन्म के प्रायः ६ ठे या आठवें महीने में बालक को पहली बार अन्न चटाया जाता है ,इसे अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है I 
८. चूडाकर्म संस्कार : इसे मुंडन संस्कार भी कहते हैं,यह प्रायः तीसरे या पांचवें वर्ष संपन्न किया जाता है,इस अवसर पर बालक के सर के बाल को पहली बार उतारा जाता है I 
९.कर्णवेधन  संस्कार : जन्म के तीसरे या पांचवे वर्ष में बालक की कर्णपाली का छेदन किया जाता है, ऐसा माना जाता है कि कर्णपाली के छेदन से कुछ विशेष रोगों से बचाव होता है I
१० उपनयन संस्कार : उपनयन का अर्थ ऐसा संस्कार जिसके बाद वह गुरुकुल या गुरु के समीप अध्ययन ग्रहण योग्य हो जाता है I  इसे उसका दूसरा जीवन माना जाता है तथा गुरु भी उपनीय (योग्य ) शिष्य को ही ज्ञान देते हैं I 
११. वेदारम्भ संस्कार : उपनयन के दिन से ही या उसके एक वर्ष के भीतर वह गुरु के समक्ष रहकर वेदों का अध्ययन करता है जिसे वेदारम्भ संस्कार कहते हैं I
१२. समावर्तन संस्कार : पच्चीस वर्ष की आयु तक वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन पूर्ण कर लेने पर उसका विदाई समारोह होता है, जिसे आज की भाषा में 'कान्वोकेसन सेरेमनी ' कह सकते हैं, इसके बाद ही शिष्य अपने गृहस्त जीवन में प्रवेश करता है I
१३ विवाह संस्कार : यह संस्कार गृहस्त आश्रम में प्रवेश का पहला चरण है , इसमें एक स्वस्थ एवं परिपक्व पुरुष स्वस्थ एवं परिपक्व स्त्री से संतान उत्पत्ति की कामना को लेकर प्रणय सूत्र में आबद्ध हो जाता है I 
१४. वानप्रस्थ संस्कार : पचीस से पचास वर्ष तक गृहस्त आश्रम को सफल बनाकर ,जब व्यक्ति की संतान विद्या ग्रहण कर घर को आ जाती है और उसका भी विवाह संपन्न हो जाता है, तब अपने पुत्र एवं वधु को घर का दायित्व छोड़कर वह अपने सीमित दायरे से बड़े दायरे में आ जाता है और अपना जीवन आध्यात्म चिंतन एवं समाज की सेवा में व्यतीत करता है,इसे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश माना जाता है I
१५.संन्यास संस्कार : पचास से पचहतर वर्ष की आयु तक वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद वह निरंतर अभ्यास द्वारा पूर्ण रूपें आध्यात्मिक साधना में लग जाता है, जिसमें उसका उद्देश्य ज्ञान एवं भक्ति के आध्यात्मिक प्रकाश से ईश्वर सहित मोक्ष  की प्राप्ति होता है I
१६. अन्त्येस्टी संस्कार : यह संस्कार मरणोपरांत पुत्र ,बन्धु बाधव द्वारा किया जाता है  I इसमें उसके पार्थिव शरीर का संस्कार किया जाता है,इसके साथ ही उसकी आत्मा को पुनः नया जीवन प्राप्त होता है ऐसा माना जाता है I 
ये सभी संस्कार मनुष्य के आदि से लेकर  अंत तक किये जाते हैं ,अतः मानव जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व है I
डॉ नवीन जोशी 
एम्.डी .आयुर्वेद 
ई.मेल : ayushdarpan@gmail.com

जिस काम को करने में आपको आपको आनंद एवं संतुष्टि का एहसास मिलता हो, वह एक महान काम का रूप ले लेता है...


कई बार हम हम असफलताओं से परेशान होकर अपनी किस्मत को दोष देने लग जाते हैं और अक्सर यह कहते हैं ,क़ि मेरा भाग्य साथ नहीं दे रहा ,पर आइये आपको हम एक कहानी सुनाते हैं ,जो यह सन्देश देती है, क़ि कई बार व्यक्ति असफलता के कारण ही सफलता के नए मुकाम हासिल करता है I आज पूरी  दुनिया स्टीव जॉब की सफलता क़ी कहानी बयाँ करते नहीं थक रही   है I  स्टीव जॉब  को  पूरी दुनियाँ एप्पल  कंपनी के संस्थापक के रूप में जानती है I संचार जगत में आई-पोड जैसे बहुआयामी आविष्कार को लाने का श्रेय इसी कंपनी को जाता है और इसके पीछे  स्टीव जॉब का नाम आता है I पेंक्रीयास के कैंसर से दिवंगत स्टीव के जीवन के कुछ रोचक पहलुओं को आपके सम्मुख प्रस्तुत करने का सार उनके जीवन से मिलने वाला एक सन्देश है, जिसे आप अपने जीवन में उतार कर सफल बनना चाहेंगे I
स्टीव ने अपनी स्नातक क़ी  पढ़ाई प्रवेश के छह महीने बाद ही छोड़ दी थी  और अठारह महीने वे यूँ ही बैठे रहे ,इसके पीछे के कारण के बारे में स्टीव का कहना था, क़ि इसकी शुरुवात मेरे पैदा होने से पहले ही शुरू हो चुकी थी I  मेरी बायोलोजिकल माँ जो तब  युवा थी , ग्रेजुएसन के लिए कालेज में दाखिला नहीं ले पायी थी, सिर्फ इसलिये उन्होंने मुझे एडाप्ट कराने का फैसला लिया ,ताकि मैं ग्रेजुएट हो सकूँ और इसलिये मेरे भविष्य को तय करने हेतु बचपन में ही एक वकील  दंपत्ति ने    मुझे एडाप्ट कर लिया I सत्रह साल के बाद मैंने स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, यह विश्वविद्यालय इतना महंगा था क़ि मेरे माता- पिता क़ी सारी जमा पूंजी मुझे पढ़ाने मैं ही खर्च हो जानेवाली थी I छह महीने बीतते- बीतते मुझे यह बकवास नजर आने लगा,मुझे यह भी समझ में  नहीं आ रहा था कि मुझे करना क्या है?  मेरी माता -पिता क़ी जमा पूंजी खर्च कर क़ी गयी ,इस  कालेज क़ी पढ़ाई से  मेरे भविष्य क़ी क्या दिशा तय होगी  ? अंततः मैंने कालेज छोडने का फैसला लिया,पर शायद यह मेरी जिन्दगी का सबसे अच्छा फैसला था ,जैसे   ही मैंने कालेज छोड़ा,अब मुझे पहले जिन विषयों में रूचि नहीं थी, उनमें अब रूचि पैदा होने लगी, यह सब एक रोमांचकारी अनुभव था I मेरे पास सोने के लिए दोस्तों के  कमरे का फर्श था,और में दोस्तों क़ी कोक क़ी  बोतलों को वापस कर इकठ्ठा किये गए 5¢ से अपने लिए खाना खरीद कर लाता था और अच्छा खाना खाने के लिए हर रविवार  शहर से सात मील दूर हरे कृष्ण मंदिर जाया करता था I
रीड कालेज का नाम तब केलीग्राफ़ी के लिए मशहूर था, हर जगह अक्षरों को अलग-अलग स्टाइल से लिखा गया था, जो बड़ा ही नायाब लगता था ,चूँकि मैंने कालेज छोड़ दिया था ,तो मैं नियमित छात्र के रूप में कक्षा में प्रवेश नहीं कर सकता था I   अतः केलिग्राफ़ी क़ी को सीखने का मैंने  फैसला किया I अक्षरों को अलग-अलग प्रकार से सजाना अपनेआप में रुचिपूर्ण और एक अलग सा एहसास था I  लेकिन मेरे जीवन में इसका क्या उपयोग होगा यह समझ से परे था I दस वर्ष के बाद जब मैंने मेकेंटोस कंप्यूटर को डिजायन किया, तब मुझे लगा क़ी हाँ, यह केलीग्राफ़ी का कमाल था, जिसने इस अद्भुत रचना को पैदा करने में अपनी भूमिका निभाई थी I
मैंने एप्पल कंपनी को २० वर्ष की  उम्र  अपनी माता -पिता क़ी गेराज में २० कर्मचारीयों से  प्रारम्भ किया था,हमने परिश्रम किया और देखते ही देखते यह दो बिलियन  डालर क़ी ४००० कर्मचारीयों क़ी कंपनी बन गयी  I हमने अपना सबसे नायाब उत्पाद मेकेंटोस कंप्यूटर के रूप में बनाया था ,तब मैं सिर्फ ३० साल का था,तभी कंपनी के प्रबंधन  ने मुझे निकालने का फैसला लिया, जिस कंपनी क़ी शुरुवात ही मैंने क़ी थी उसी कंपनी द्वारा निकाला जाना एक अजीब सा एहसास था I  अगले कुछ महीनों तक मेरे पास करने को कुछ नहीं था ,लेकिन में हारा नहीं मुझे लगता है क़ी एप्पल कम्पनी से निकाला जाना मेरे जीवन का सबसे अच्छा पल था, इससे मेरे अन्दर सफल होने का भार कुछ हल्का पड़ गया ,था और में  हलके मन से एक नए खिलाड़ी के रूप में नयी शुरुवात का प्रयास करने लगा था I   इसके बाद मैंने अगले पांच साल तक नेक्स्ट एवं पिक्सर नामक एक कंपनी चलाई और इसी दौरान एक अद्भुत महिला से मुझे प्यार हो गया, जो बाद में मेरी पत्नी बन गयी I  पिक्सर वह कंपनी थी जिसने सबसे पहली कंप्यूटर एनीमेटेड फिल्म बनायी थी ,जिसका नाम 'टॉय स्टोरी' था, आज यह दुनिया का सबसे बेहतरीन  एनीमेटेड स्टूडियो है I   कुछ ही दिनों बाद नेक्स्ट को एप्पल ने खरीद लिया और मेरी एप्पल में वापसी हो गयी I   मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ , कि एप्पल द्वारा निकाले जाने से ही  मुझे लॉरेन के रूप में एक परिवार मिला I  अक्सर ऐसा होता है, क़ि जिन्दगी आप के सर पर बार -बार पत्थर मारती है परन्तु भरोसा नहीं खोना चाहिए I   मेरे जीवन में भी ऐसा ही कुछ हुआ, पर मैं आगे बढ़ता गया, मैंने जिस काम से प्यार किया उसे करता चला गया और यही सच्चाई है ,क़ि जिस काम को करने में आपको आपको आनंद एवं संतुष्टि का एहसास मिलता हो वह एक महान काम का रूप ले लेता है I  
 संकलन :डॉ नवीन जोशी 
एम्.ड़ी.आयुर्वेद 
ई..मेल.: ayushdarpan@gmail.com

Saturday, October 15, 2011

ऋषि-मुनियों जैसी लंबी आयु चाहिए तो बस ये एक शर्त है....


हमारे जीवन में सांसों का बड़ा महत्व है। सांस शब्द का प्रयोग किसी की मृत्यु हो जाने पर अंतिम सांस लेने जैसे शब्द के रूप में किया जाता है। ऐसे ही सांस  के रूप में लिए जाने वाली प्राणवायु को विष्णुपदामृत कहकर संबोधित किया जाता है। प्रेमी एवं प्रेमिका के लिए भी सांसों से सांस जुडऩे की बात कई संगीतकारों ने अपनी रचनाओं में की है। किसी क़ी सांस दुर्घटनावश उखड रही हो तो मुंह से सांस देने का भी विधान है। ऐसे ही  योग में प्राणायाम क़ी क्रियाओं में भी सांस का बड़ा महत्व है।सांस लेना पूरक,सांस छोडना रेचक एवं सांस रोकना कुम्भक कहलाता है।
कहा जाता है, कि़ सांस गिनती की मिली है ,और लम्बी उम्र जीने की चाह रखने वालों को अपने सांसों पर नियंत्रित रखने का निर्देश योग  एवं आयुर्वेद के मनीषियों ने भी दिया है।  ऐसा देखा गया लम्बी आयु जीनेवाले जीव अपनी सांस धीमी लेते हैं, इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं , कि़ सांस के रूप में ईश्वर ने  हमें एक बैंक बैलेंस दिया है , अब यह हम पर निर्भर करता है कि़ हम इसे कैसे खर्च करते हैं। वैसे भी अधिकाँश बीमारियों में सांसों क़ी गति का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन योगी, ऋषि-मुनि अपनी सांसों पर नियंत्रण कर लम्बी आयु प्राप्त करते थे,इसलिए सांस को नियंत्रित कर तथा प्रदूषणमुक्त वातावरण में जीवन बिताने से  चिरायु एवं सुखायु  प्राप्त होती है ।इसी आर्टिकल को पढ़ने  के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-like-monks-have-a-long-life-is-just-a-condition-that-2405832.html

विभिन्न ग्रहों एवं नक्षत्रों से सम्बंधित पौधे


आप शायद जानते होंगें क़ि वेद संसार के सबसे प्राचीन वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं,और अथर्ववेद का उपवेद  आयुर्वेद है I अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त की २७ वी कंडिका में वर्णित पंक्ति के अनुसार यह पृथ्वी सभी प्रकार की वनस्पतियों एवं वृक्षों से भरी पडी है , जहाँ  लाखों प्रकार की  औषधियों के गुणों से युक्त वनस्पतियाँ  ईश्वर  की अनुकम्पा से अवतरित हुई हैं ,पर्यावरण सरंक्षण की दृष्टि से तो इनका महत्व है ही, साथ ही ये औषधियां हमारे दैनिक जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ती भी करती हैं I ये वृक्ष,लताएं अनेक जैविक  गुणों से युक्त चैतन्य स्वरुप हैं, जिनकी पूजा-अर्चना के पीछे का उदेश्य भी इनका सरंक्षण ही है I आयुर्वेद एवं ज्योतिष में इनके औषधीय सहित अनेक कल्याणकारी गुणों का वर्णन है I आप शायद जानते होंगे क़ि ज्योतिष में नौ ग्रहों एवं  २७ नक्षत्रों का उल्लेख है I प्रत्येक व्यक्ति पर इन नवग्रहों एवं  नक्षत्रों का प्रभाव पढ़ना तय हैI जिस प्रकार ग्रहों एवं नक्षत्रों के देवता के मंत्र,यन्त्र ,रत्न एवं रंग होते हैं, ठीक उसी प्रकार इनके वृक्ष एवं वनस्पतियाँ भी हैं, जिनकी पूजा अर्चना एवं यज्ञं में प्रयोग इनके प्रभाव को कम या अधिक करती हैं I इन्ही कारणों से पौराणिक ग्रंथों के आधार पर विभिन्न ग्रहों एवं नक्षत्रों से सम्बंधित पौधों का वर्णन निम्न अनुसार किया गया है :
ग्रह का नाम                                   वनस्पति का नाम  
बुद्ध                                               अपामार्ग
वृहस्पति                                        पारस पीपल
केतु                                              कुशा,अश्वगंधा
शुक्र                                                गूलर
शनि                                                मदार
चन्द्र                                                पलास
मंगल                                               खदिर
राहू                                                 दूर्वा
अश्विनी                                          कुचला
भरणी                                             आंवला
कृतिका                                           गूलर
रोहिणी                                           जामुन
मृगशिरा                                         खदिर
आद्रा                                             शीशम
पुनर्वसु                                            बांस
पुष्प                                               पीपल
अस्लेषा                                          नागकेशर
मधा                                              बरगद
पूर्वा फाल्गुनी                                   पलाश
उत्तरा फाल्गुनी                               पाठा
हस्त                                             रीठा
चित्रा                                            बिल्वपत्र
स्वाति                                           अर्जुन
विशाखा                                        कटाई
अनुराधा                                       मौलश्री
ज्येष्ठा                                         चीड
मूल                                             साल
पूर्वाषाढा                                        जलवेतस
उत्तराषाढ़ा                                     कटहल
श्रवण                                              मदार
घनिष्ठा                                          शमी
शतभिसा                                        कदम्ब
पूर्वाभाद्रपद                                     आम
उत्तराभाद्रपद                                 नीम
रेवती                                           महुवा
ये  सभी वनस्पतियाँ  औषधीय गुणों से भरी पडी हैं, तो आज से ही हम यह निश्चित करें क़ी संसार की  सभी वनस्पतियों में देवत्व बसता है अतः  इनका सरंक्षण ही इनकी पूजा है I
डॉ नवीन जोशी
एम्.ड़ी.आयुर्वेद
 इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :http://himalayauk.org/2011/09/tree-grah-himalayauk-org/