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Tuesday, March 6, 2012

स्पेशल रिपोर्ट: खाना खाने से पहले एक बार ये खबर जरुर पढ़ लीजिए!

भूखा रहना और स्वस्थ रहना ,बात सुनने में कुछ अजीब लगती हो पर शोधकर्ताओं का मानना है ,कि सप्ताह में दो दिन भोजन को छोड़ कर आप अल्जाइमर और डेमेंसीया जैसी बीमारियों से बचे रह सकते हैं। नेशनल इंस्टट्यूट ऑफ  बाल्टीमोर के शोधकर्ताओं का मानना है, कि कुछ  नियंत्रित और तय आहार लेकर और कैलोरी की मात्रा को कम कर आयु को बढाया जा सकता है।

ऐसे परिणाम बड़े चौकाने वाले हैं ,जो चूहों की आयु को 40 प्रतिशत तक बढ़ा देनेवाले पाए गए हैं। शोधकर्ताओं का मानना है, कि ऊर्जा के रूप में प्रतिदिन 500  कैलोरी की अतिरिक्त मात्रा को सप्ताह में दो दिन कम कर आप अपने मस्तिष्क को दुरुस्त रख सकते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है, कि इस प्रकार की प्रवृति हमें अपने आदिम पूर्वजों से विरासत में मिली है ..अब आप कहेंगे कैसे? तो हम बतलाते हैं ....हमारे आदिम पूर्वजों को आहार की खोज में भटकना पड़ता था..इसके लिए उनका मस्तिष्क भोजन के स्रोत को अक्सर अपने मस्तिष्क में याद कर रखता था, तथा रास्ते में आनेवाले प्राकृतिक आदमखोर शिकारियों से बचाव के लिए भी अपने मस्तिष्क को तैयार रखता था।

अत: हमारे मस्तिष्क में एक प्रकार की स्वाभाविक प्रणाली  विकसित हो गयी है, जिसका सम्बन्ध भूख और तंत्रिकाओं के विकास से सम्बंधित है। है ,न कमाल की बात, जिसे हम आयुर्वेद में लघुता लाने के उपाय के रूप में लंघन के एक प्रकार के रूप में जानते हैं और उपवास नाम देते हैं, यह एक प्राकृतिक और स्वाभाविक रूप से मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है .....तो आज से ही सप्ताह में दो दिन का करें उपवास ...इससे आप रहेंगे स्वस्थ ,शांत और प्रसन्नचित ...। इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें ..http://religion.bhaskar.com/article/yoga-are-you-hungry-2911305.html

Friday, June 24, 2011

संघर्ष


जीवन संघर्षों की कहानी है.हर व्यक्ति जो महान या सफल बनता है उसके जीवन में संघर्षों का एक दौर आता है .वैसे भी अस्तित्व के लिए संघर्ष की बात प्रख्यात दार्शनिक डार्विन ने भी की थी.इस कहानी के पात्र शिवशंकर  से एस ..शंकर बनने की कहानी एक आम आदमी से जुडी हुए कहानी है .आशा है आपको पसंद आयेगी.........
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  वर्ष १९५० ,हिमांचल में किशनपुर नामका छोटा सा गाँव जो समुद्र तल से ३५५० मीटर की ऊंचाई पर स्थित था ,वहां लगभग ३०० परिवारों का एक समूह पर्वतीय जीवन शैली के अनुरूप अपना जीवन गुजर वसर करता थाIब्रिटिश हुकूमत से निजात पाए कुल ३ साल का समय हुआ था I अधिकाँश गावों का सड़क से संपर्क नहीं था,बिजली ना होने के कारण दीये   का ही एक सहारा था Iगाँव में स्कूल तो था पर लगभग १० कम दूर,वहाँ आसपास के ३ गावों के बच्चे पैदल ही पढ़ने आया करते थे Iअस्पताल के नाम पर एक जीर्ण -शीर्ण आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी जहाँ एक वार्ड बॉय ही लोगों के लिए चिकित्सा  का  सहारा थाIगाँव से जिला मुख्यालय पालमपुर लगभग ३० किलोमीटर पैदल था Iलोगों को छोटे -मोटे काम के लिए भी १५ किलोमीटर दूर स्थित तहसील सेलम जाना पड़ता था Iकिशनपुर में सभी जातियों के लोग बड़े ही सौहार्द से रहते थे ,क्योंकि उनके जीवन का स्तर लगभग एक सा ही था I गावों में शिक्षा के नामपर जो स्कूल था उसमें भी केवल कक्षा आठ तक की पढ़ाई थी और शिक्षक केवल दो थे,जिनमे से एक अधिकाँश समय छुट्टी पर ही रहते थे Iगावों के पुरुष एवं महिलाएं सीढीनुमा खेतों में अपने खाने योग्य अनाज लगाकर अपनी जीविका को निर्वाह कर रहे थेI वह परिवार जिसके बच्चे ने आठवीं कक्षा पास कर ली उसके पास दो रास्ते थे या तो फ़ौज में भर्ती हो जाय या फिर किसी के साथ पालमपुर जाकर आगे की  शिक्षा ले पर सभी के लिए यह संभव नहीं था I इसी गाँव में रमाशंकर पंडित का एक परिवार रहता था,उसके तीन लड़के बड़े का नाम हरिशंकर पंडित,बीच वाले का नाम रामशंकर पंडित एवं सबसे छोटे का नाम शिवशंकर पंडित थाI हरिशंकर ने कक्षा आठ तक की पढ़ाई करने के बाद पालमपुर जाकर फ़ौज की भर्ती में सम्मिलित हुआ,तथा उसका चयन भी हो गया,तथा वह परिवार का कमाऊ सदस्य बन गयाIआसपास के परिवारों में रमाशंकर के परिवार कि बड़ी इज्जत होने लगीIलड़का जो सरकारी नौकरी में लग गया था ! धीरे -धीरे समय बीतता गया हरिशंकर ने आगे पढ़ाई फ़ौज के तौर तरीकों से ही की  ,जबकि कृपाशंकर स्कूल से अक्सर इधर -उधर भाग जाता था ,उसकी पढ़ने में रूचि बहुत कम थीIपंडित परिवार होने के कारण रमाशंकर आसपास के गावों में पूजा पाठ कराया करते थे ,इससे परिवार को आर्थिक सहारा मिल जाता था I कृपाशंकर  का अपने पिताजी के साथ पूजा -पाठ में ही अधिक मन लगता था तथा वह बचे समय में खेतों में काम कर अपनी माँ का हाथ बंटाता था Iपूजा -पाठ से अच्छी कमाई होने के कारण रमाशंकर ने अपने बीच वाले बेटे कृपाशंकर को हरिद्वार में आठवी कक्षा के बाद संस्कृत में मध्यमा की पढ़ाई के लिए भेजने चाहा Iपर रामशंकर को यहाँ  कहाँ मंजूर होता वह सातवीं कक्षा को ही उत्तीर्ण नहीं  कर पायाIसमय बीतता गया,रमाशंकर का छोटा पुत्र शिवशंकर धीरे-धीरे बड़ा हो रहा थाIवह अत्यंत कुशाग्र बुद्धि का बालक था Iगाँव के प्रतिष्ठीत ज्योतिषी पंडित सोमदत्त ने उसकी कुण्डली बनाते वक़्त ही उसके प्रतिभाशाली एवं संपन्न होने की भविष्यवाणी  की  थीIलेकिन घर के लोगों को इसपर विश्वास नहीं था,उनके लिए तो शिवशंकर भी रामशंकर और कृपाशंकर की तरह ही एक सामान्य बालक था Iअब शिवशंकर भी कक्षा सात में पहुँच गया था,तथा कई बार वह अपनी कक्षा में शिक्षक द्वारा गलत पढाये जाने की और इंगित करने लगा था,इससे स्कूल के एक मात्र शिक्षक नवीन शास्त्री अनावश्यक रूप से चिड़ने लगे,और उसे कक्षा सात की परीक्षाओं में सबक सिखाने का ठान बैठे Iशिवशंकर को इस बात का कहाँ एहसास होता वह तो मासूम और भोला जो थाI स्कूल से आने के बाद वह भी कृपाशंकर की तरह ही खेतों में काम कर अपने परिवार का हाथ बंटाता था I हरिशंकर भी अब घर को पैसा भेजने लगा था,जिससे घर की आर्थिक हालत सुधरने लगी थीIएक दिन बारिश का मौसम था गाँव के लोग खेतों में फसल काटने में लगे थी तभी एक बच्चे ने रमाशंकर को शिवशंकर के कक्षा सात में फेल होने की जानकारी दी I शिवशंकर तब जानवरों के लिए चारा लाने गया था,जब घर लौटा तो घर में अजीब सा सन्नाटा पसरा थाI कृपाशंकर ने शिवशंकर के फेल होने की  खबर सुनायी ,यह खबर तो शिवशंकर के लिए आसमान टूट कर गिरने के समान थी ,उसने सपने में भी फेल होने का नहीं सोचा थाI खैर होनी को कुछ और ही मंजूर था,पिताजी ने अब शिवशंकर को गाँव के ही लड़के प्रदीप के साथ पालमपुर भेज दिया Iप्रदीप और कृपाशंकर साथ-साथ रहने लगे,प्रदीप कक्षा आठ में पढ़ता था जबकि शिवशंकर ने  दुबारा कक्षा सात में प्रवेश लियाIबड़े भाई हरिशंकर को जब इस बात का पता चला तो उसने पिताजी को पत्र लिखा कि आप शिवशंकर कि चिंता ना करें उसका खर्च में वहन करूंगाIधीरे -धीरे शिवशंकर अपनी पढाई करता रहाIरमाशंकर दमे का मरीज था ,एक दिन अचानक उसे सीने में दर्द हुआ और गाँव  के लोग उसे रात  ही डोली में रखकर पालमपुर को लाने लगे पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था ,रमाशंकर रास्ते में ही चल बसे ,अचानक ही आयी  इस विपदा ने सभी को झकझोर दियाI अब हरिशंकर परिवार की जिम्मेदारी आ पडी,अब उसे शिवशंकर के साथ घर को भी पैसे भेजने पड़ते थेI थोड़े ही दिनों बाद हरिशंकर का विवाह संपन्न हुआ,और वह अपनी नव विवाहिता  पत्नी को लेकर चेन्नई चला गया Iसमय बीतता गया शिवशंकर भी अपने कक्षा में अव्वल आने लगा Iथोड़े दिनों बाद गाँव के भाई की भी पास के ही गाँव की लडकी से शादी हो गयी I अब गाँव में कृपाशंकर ,उसके पत्नी एवं माँ ही रहते थेI वो लोग खेती -बाड़ी कर अपना गुजर बसर करते थे,कभी कभी हरिशंकर भी  पैसे भेज देता था ,लेकिन अब उसका भी अपना परिवार था,इसलिये उसे भाई और गाँव दोनों जगह पैसे भेजने में कठिनाई होती थी Iअब शिवशंकर ने अपनी पढ़ाई के साथ- साथ अपने से छोटी  कक्षा के छात्रों  को टयूसन पढ़ाना प्रारंभ किया,जिससे उसका थोड़ा बहुत जेब खर्च निकल जाता था,कभी कभी वह चुपचाप बस स्टेशन पर जाकर लोगों का  सामान  भी   ढो  लेता,उसे किसे भी काम को करने में कठिनाई नहीं होती थी Iइसप्रकार वह अब अपना खर्च स्वयं बहन  कर अपनी पढाई को आगे बढ़ा रहा थाI धीरे धीरे वह आठवीं,नौवीं एवं दसवी कक्षा को सफलतापूर्वक उतीर्ण कर,ग्यारवी कक्षा के पढ़ाई के लिए शिमला आ गयाI तभी शिमला में रोडवेज में क्लर्क क़ी नियुक्ति हेतु विज्ञापन निकला था,जिसमे मासिक ७५ रुपैये का वेतन थाI दोस्तों ने कहा शिवशंकर यह नौकरी कर लो,पर शिवशंकर को यह कहाँ मंजूर था,उसकी मंजिल तो कहीं और थी ! सभी ने कहा बड़े -बड़े ख्वाब देखना छोड़ दे, शिवशंकर ! अपने परिवार क़ी माली हालत तो देख ! बाबू की नौकरी पकड़ ले,इसमें उपरी कमाई  भी होती हैIशिवशंकर ने कहा बाबू नहीं बनना है मुझे!.........क्रमशः 

Friday, June 3, 2011

सत्यम की कहानी

सत्यम एक खूबसूरत सा लड़कापढ़ा लिखा और सभ्य,सदैव माँ बाप के साथ रहा.,अब बड़ा हो गया माता पिता ने  सोचा पडोस के गुप्ताजी का लड़का इन्जिनीरिंग की पढ़ाई की प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए दिल्ली गया है ,तो क्यों न हम भी दिल्ली ही भेज दें, बच्चा सीधा-साधा आज्ञाकारी कुछ ना बोला,बोलता भी कैसे ! किसी ने पूछा कहाँ उसे बनना क्या है ?चल पडा पिताजी के साथ दिल्ली ,पहली बार घर से निकला था कुछ सहमा-सहमा था, दिल्ली में एक इंजीनीरिंग की कोचिंग में दाखिला लिया,साथ में रहने के लिए मोहन भी मिल गया था, जो किसी और कोचिंग में मेडिकल की तैयारी कर रहा था, अब उसे कोचिंग में एक समस्या आ  पडी ,शिक्षक  पढ़ाएं कुछ और वो समझे कुछ ,घर आता तो खाने की समस्या,मोहन के साथ मिलकर बनाना पड़ता, वहां मोहन बनाता तो सत्यम बर्तन धोता,सत्यम बनाता तो मोहन बर्तन धोता,क्योंकि खाने का अच्छा होटल जो पास में ना था Iगुप्ताजी का बेटा भी पास के ही एक घर में आराम से पेइंग गेस्ट के रूप मे रहता था I एक दिन सत्यम की तबियत ठीक ना थी और मोहन भी कहीं रिश्तेदार के यहाँ गया था ,अब सत्यम क्या करे ?भूखा ही सो पडा ! थोड़े ही दिनों में कोचिंग में टर्म परीक्षाओं का आयोजन होने वाला था,सत्यम ने भी बड़े मेहनत से तेयारी कर परीक्षा दी, पर अगले दिन अंक सिफर बड़ा परेशान ये क्या हुआ ! अरे सिफर क्यों नहीं आता ,परीक्षा में प्रश्न जो समझ में नहीं आ रहे थे, अब करता क्या कोचिंग में पूरे पैसे भी भर  दिए थे ,धीरे धीरे मुख्य परीक्षा का समय निकट आने लगा,दिल की धड़कन बढ़ने लगी ! क्या होगा ? उसने अंतिम वक़्त पर इम्तिहान छोड़ने का फैसला लिया ,पर किसी को बताया नहीं ,तभी खबर आयी माँ की तबियत खराब है, चले आओ  वह सीधा दिल्ली से चल पडा अपने घर को,रास्ते में उसे रोहन मिला जो किसी कंपनी में प्रोजेक्ट मेनेजर था,उसने सत्यम से पूछा की वो कहाँ से और क्यों जा रहा है,बातें हुई धीरे- धीरे घनिष्टता बढ़ती गयी और सत्यम ने अपनी आप बीती सुनाई ,रोहन ने उसे समझाया की दोस्त काम वो करो जो दिल को भाये,तुम घर जाओ माँ के पास और उसकी तबियत ठीक होने के बाद उसे बताना की माँ में इंजीनीयर नहीं बन सकता मैं छोटी- मोटी नौकरी के काबिल हूँ ,मुझे छोड़ दो मैं अपना रास्ता खुद तलाश लूंगा,पिताजी नाराज गुप्ताजी का लड़का तो इंजिनीयर बन ही जाएगा और यह लड़का तो गया काम से !एक दिन  सत्यम ने  माँ की आलमारी से कुछ पैसे निकाले और चल पडा अपनी मंजिल तलाशने I रेलवे स्टेशन पास में ही था सामान्य श्रेणी का टिकट लिया और बैठ गया मुंबई वाली ट्रेन में !अगले सुबह मुंबई पहुंचा तो बस हाथ में पता था रोहन का जो उसे पहले ट्रेन में ही मिला था,दादर स्टेशन पर ट्रेन अगले दिन सुबह पहुँची,तो रोहन के पते की ओर चल पडा ,बड़ी मुश्किल से रोहन का पता तो मिला पर रोहन तो वहां से अहमदाबाद जा चुका था! अब सत्यम क्या करता पैसे भी कम ही थे, पास के ही एक होटल में वेटर का काम करने लगा I इधर माँ पिताजी परेशान सत्यम कहाँ गया ?दिल्ली भी फ़ोन लगाया पर कुछ पता न चल पाया.Iकुछ दिनों के बाद सत्यम ने पिताजी को फ़ोन किया की मैं ठीक हूँ और अपनी मंजिल तलाश रहा हूँ I.पिताजी ने कहा बेटा तू घर आजा तुझे इंजिनीयर नहीं बनना है तो मत बन लेकिन घर आ जा ..सत्यम ने कहा पिताजी आप मेरी चिंता ना करो में ठीक हूँ और जल्द आउंगाI पास में ही एक मार्शल आर्ट केंद्र था जहां लोग काम के बाद फुर्सत के क्षणों में मनोरंजन के लिए जाया करते थे, सत्यम ने भी कुछ पैसे बचा कर वहां प्रवेश ले लिया ,एक - दो दिन बाद ही केंद्र के  मास्टर ट्रेनर ने उसकी फुर्ती देखते हुए उसे इसे अपना लक्ष्य बनानेको कहा Iकुछ दिनों बाद सत्यम उस इलाके का जाना -माना मार्शल आर्ट एक्सपर्ट बन गया I.अब उसने होटल की नौकरी छोड़ दी और खुद मास्टर ट्रेनर बन गया Iपिताजी-माताजी से बीच -बीच में संपर्क होता था ,पर उसने अपने बारे में कुछ ख़ास उन्हें नहीं बताया Iआस पास के लोग पूछते खासकर गुप्ताजी जिनका लड़का इंजिनीयर की तैयारी करते -करते अपने पिताजी की परचून की दुकान सभालने लगा थाIअब क्या जवाब देते उन्हें खुद जो पता नहीं था !थोड़े दिन बाद सत्यम घर आया,माँ-पिताजी उसे पहचान ही नहीं पाए क्योंकि उसका शरीर बदल चुका था,उसने खुद के सिडनी स्थित किसी हेल्थ सेंटर में मास्टर ट्रेनर बने की खबर जो सुनाई ,पिताजी खुश, माँ भी खुश सत्यम ने खुद की मंजिल जो पा ली थी !

Thursday, April 28, 2011

टीस......

 मारुफनगर एक छोटा सा  कस्बा,जहाँ रहते  थे दो भाई जिनमे छोटे  का नाम कृपालु और बड़े का नाम नयनसुख था,दोनों की उम्र में केवल दो साल का अंतर था, बचपन  में पिता अज्ञात बिमारी से चल बसे जो एक प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक थेI माता मुन्नी देवी भी एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थीIउन्ही की कमाई  से कृपालु एवं नयनसुख कष्टों का सामना करते पढ़ने लगेIकृपालु बड़ा ही शांत एवं अंतर्मुखी था,तथा माँ  की मजबूरियों को समझता हुआ अपनी माँ के कामों में हाथ बटाता था I नयनसुख मेधावी पर चंचल थाI एक दिन क़स्बे में एक खेल  प्रतियोगिता हुई ,जिसमे कृपालु एवं नयनसुख दोनों ने भाग लिया ,नयनसुख ने खेल की कई प्रतियोगिताओं में उतकृस्ट प्रदर्शन  किया, जबकि कृपालु का प्रदर्शन हमेशा की तरह सामान्य रहा I माँ ने नयनसुख की  प्रतिभा को देखते हुए उसे पढ़ाने हेतु एक टीचर रख दिया जो घर पर आकर टयूसन देता था,कृपालु भी उससे पढ़ने लगाI उनके पड़ोस में उनका मित्र जुगल किशोर रहता था ,जो नयनसुख की कक्षा में पढ़ता था तथा उसका छोटा भाई रामकिशोर कृपालु की कक्षा में Iपढ़ने में वे दोनों सामान्य थे तथा सुखी सम्पन्न घर के होने के कारण सभी प्रकार की भौतिक सुविधाओं से परिपूर्ण थेIपड़ोसी होने के कारण उन बच्चों का आपस में गहरा सबंध था I उनके माता पिता भी आपस में घुले मिले थेI हमारे देश में दसवीं की बोर्ड की परीक्षाओं का अत्यंत महत्व रहा है, नयनसुख एवं जुगल किशोर ने एक साथ बोर्ड की परीक्षाएं दी.Iकुछ ही दिनों बाद परीक्षाफल प्रकाशित हुआ,जुगलकिशोर तो प्रथम श्रेणी में उतीर्ण हुआ जबकि नयनसुख अनुतीर्ण घोषित किया गया,यह देखकर नयनसुख की माँ को गहरा सदमा लगा Iएक तो अभाव में बच्चों को पढ़ाना तथा होनहार बच्चे का निराशाजनक प्रदर्शन! लेकिन नयनसुख था जो इन सब में कुछ अनहोनी की ओर बार बार इशारा कर रहा थाI लेकिन  उसकी कोई सुन नहीं रहा था I उसी स्कूल के एक शिक्षक,जिसने नयनसुख को पढ़ाया था,उन्हें यह जानकर ताजुब हुआ कि,नयनसुख फेल हो गया,उन्होंने नयनसुख कि माँ मुन्नी देवी को समझाया कि आपके पुत्र का कहना बिलकुल सही है,उसके साथ कोई धोखा हुआ हैIकुछ ही दिनों बाद यह बात सामने आयी कि उस विद्यालय के शराबी प्रधानाचार्य ने कुछ मेधावी बच्चों की  उत्तर पुस्तिका  को सामान्य बच्चों की उत्तर पुस्तिका से परिवर्तित कर दिया,यह बात बाद में किसी अन्य छात्र की उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन के समय सामने आयी Iखैर होनी  तो हो चुकी थी,परीक्षाफल में परिवर्तन के लिए बार-बार बोर्ड आफिस के चक्कर लगाना,मुन्नी देवी के लिए संभव ना था ,उन्होंने नयनसुख को दोबारा १० वी की  बोर्ड की परीक्षा दिलाना उचित समझा और नयनसुख एक साल बाद अव्वल अंको के साथ उतीर्ण हुआ Iलेकिन असफलता  कि एक टीस उसके मन में गहराई तक समा गयी I हो भी क्यों न ? साथ का जुगल किशोर आगे जो जा चुका था Iछोटा भाई कृपालु ८ वी  कक्षा के बाद फ़ौज में भर्ती हो गया......क्रमशः