Friday, June 3, 2011

आयुर्वेद एवं पर्यावरण रक्षा का सन्देश


भारत की हिन्दू धर्मं और संस्कृति वर्षों से प्राणी मात्र के कल्याण एवं पर्यावरण रक्षा की प्रेरणा देती रही  हैI प्राचीन काल से ही पर्यावरण  रक्षा का  संकल्प वेदों में मिलता रहा Iहमारे पूर्वजों ने वृक्षों के महत्व को समझते हुए उन्हें धर्मं से जोड़ दिया,आयुर्वेद इसका अनूठा उदाहरण है,जहाँ केवल मानव मात्र की चिकित्सा ही नहीं जानवरों, पशु पक्षियों की चिकित्सा का  वर्णन भी मिलता हैIआयुर्वेद का जनक अथर्व- वेद   भी ऐसी ही रचनाओं से भरा पडा हैIभौतिकता की  अंधी दौड़ में शामिल मानव के लिए "पुरुष वृक्ष " की  संज्ञा प्राप्त पीपल एवं "अश्व्थमणि  " की उपमा से संबोधित खदिर संभवतः पर्यावरण एवं औषधीय पौधों के सरंक्षण की चेतना जगाने का काम करेगा !.
अथर्ववेद के सूक्त- ६ में पीपल को अत्यंत वीर्य वाला बताया गया है तथा इसे "पुरुष वृक्ष्य " की संज्ञा दी गयी हैIऐसे ही खदिर वृक्ष के संयोग मात्र से बनी "अश्व्थमणि " शब्द  का प्रयोग खदिर की महिमा का बखान करता है:
दोनों ही वृक्षों को एक साथ परस्पर सम्बंधित कर व्याधियों को दूर करने का अतिसुन्दर प्रसंग निम्नवत है......
हे खदिरोत्पन्न,पीपल  से बनी मणि ! तेरा वृत्रनाशक इन्द्रदेव और वरुणदेव (ज़ल एवं वायु के देवता ) ,तू रिपुओं (व्याधियों ) को पूर्णतया पतन कर !
हे,पीपल ! तुम मणि का उपादान (विकल्प) रूप हो !तुम जैसे खदिर की त्वचा को भेद कर रचित हुए हो ,उसे प्रकार हमारे रिपुओं (व्याधियों ) को क्षेद डालो !
जैसे पीपल अन्य वृक्षों को दबाता हुआ ,वृषभ (बैल ) के तुल्य बढ़ोत्तरी को प्राप्त होता है ,वैसे ही तेरी विकार रूपी मणि को धारण करने वाले हम रिपुओं को समाप्त करने में प्रवृद्ध हों!
हे पीपल !पाप देवी नैऋति मेरे रिपुओं को किसी  भी तरह खुल न सकने वाले पाशों में जकड ले 
हे पीपल जैसे तुम वनस्पतियों वृक्षों पर चदकर उनको नीचा करते जाते हो ,वैसे ही मेरे रिपुओं का सिर कुचलते हुए उनको बहिष्कृत कर  पतन को ग्रहण कराओ !
जिन किनारे के वृक्षों से नौकाएं बाँधी  जाते हैं ,उनसे खुलने पर नौकाएं नदी के प्रवाह में नीचे की तरफ खेई जाते हैं ,वैसे ही रिपु मेरे प्रवाह में रहे ,पार न लग पाएं क्योंको खदिर से रचित हुए पीपल के प्रवाह में ग्रस्त रिपु फिर नहीं लौट सकते !
मैं रिपुओं का उच्चाटन करता हूँ और रिपु का ध्वंस करने के साधन मंत्राभिमंत्रित पिप्पल की साख से उसका नाश करता हूँ !

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